________________
१४७६
धर्मशास्त्र का इतिहास की थी) भाग० १०१८४१५३। इसे चक्रतीर्थ भी अग्नि० ११५।४८; (२) (कुरुक्षेत्र के अन्तर्गत), कहा जाता है।
पप० २२६।९४। रामाधिवास-- (यहाँ का श्राद्ध एवं दान अनंत फलदायक वनप्रयाग-(गढ़वाल जिले में मन्दाकिनी एवं अलका होता है) मत्स्य० २२।५३ ।
नन्दा के संगम पर) इम्पी० गजे० इण्डि०, जिल्द रामेश्वर--(१) (ज्योतिलिङ्गों में एक जिसे स्वयं राम ने २१, पृष्ठ ३३८ । स्थापित किया था) मत्स्य ० २२।५०, कूर्म० २।३०। रुद्रमहालय--- (वाराणसी के अन्तर्गत) लिंग० (ती. २३ (रामेश्वर में स्नान करने से ब्रह्महत्या का पाप कल्प०, पृष्ठ ६८), देवल० (ती० कल्प०, पृ० २५०) । धुल जाता है), गरुड़० ११८१।९ । देखिए तीर्थसार, रुद्रमहालयतीर्थ---(साभ्रमती के अन्तर्गत) पय० ६। पृष्ठ ४७, जिसने विष्णु०, कूर्म० एवं अग्नि० से १३९।१। वचन उद्धृत किये हैं। यह पामबन द्वीप में स्थित रुद्रवास---- (वाराणसी के अन्तर्गत) लिंग० (ती० कल्प०, है। सम्पूर्ण भारत में यह प्रतिष्ठित तीर्थस्थलों में है। पृष्ठ ६२)। देखिए इम्पी० गजे० इण्डि०, जिल्द २१, पृ० १७३- रुद्रावर्त---(सुगन्धा के पश्चात्) वन० ८४।३७ । १७५, जहाँ इसके महामन्दिर का संक्षिप्त वर्णन है; हरुखण्ड-(शालग्राम के अन्तर्गत) वराह. १४५॥ (२) (श्रीपर्वत के अन्तर्गत) लिङ्ग. १९२।१४९ १०५; अध्याय १४६ में इसके नाम की व्याख्या की (स्वयं विष्णु ने इसे स्थापित किया था)।
गयी है। रावणेश्वरतीर्य-(१) (नर्मदा के अन्तर्गत) मत्स्य० रूपधारा--(इरावती पर विष्णु की आकृति) वाम.
१९१।२६; (२) (वारा० के अन्तर्गत) लिङ्ग ९०५ । (ती० क०, पृ० ९८)।
रेणुकातीर्थ--वन० ८२।८२, पद्म० ११२४१३० एवं रुक्मिणीकुण्ड या रुक्मिकुण्ड ---(गया के अन्तर्गत) वायु० २७।४७ । दे (पृ० १६८) का कथन है कि यह पंजाब १०८।५७, अग्नि० ११६॥५॥
में नाहन से उत्तर लगभग १६ मील दूर है। नाहन रुचिकेश्वरक--लिङ्ग ११९२११६७ ।
सिरमूर रियासत की राजधानी था। रुद्रकन्या-(नर्मदा के अन्तर्गत) पद्म० १।२०७६। रेणुकाष्टक--- (सरस्वती पर) वाम० ४१।५ । रुद्रकर--(कुरुक्षेत्र के अन्तर्गत) वाम० ४६।११। रेणुकास्थान--(देवी के स्थानों में एक) देवीभागवत रुद्रकर्ग--(वाराणसी के अन्तर्गत) मत्स्य० १८१।२५। ७।३८१५ (सम्भवतः रत्नगिरि जिले में परशुराम रजकर्णहद--(वाराणसी के अन्तर्गत) पद्म० पर)। ११३७।१५।
रेतोदक---(केदार के अन्तर्गत) देवीपुराण (तीर्थखकोटि--(१) (कुरुक्षेत्र एवं सरस्वती के अन्त त) . कल्प०, पृ० २३०) । वन० ८२।१११-१२४, वाम० ४६।५१, पद्म० १।२५। रेवतीसंगम--- (गोदावरी के अन्तर्गत) ब्रह्म० १२१२१ २५-३०, कूर्म० २।३६।१-८ (जहाँ हर ने मुनियों की एवं २२। पराजय के लिए एक करोड़ रुद्राकृतियाँ धारण की); रेवन्तेश्वर--(वाराणसी के अन्तर्गत) लिंग० (ती० (२) (वाराणसी के अन्तर्गत) मत्स्य० १८१।२५, कल्प०, पृ० ९६) । (३) (नर्मदा के अन्तर्गत) पद्म०१।१३।१२, रेवा---(नर्मदा) देखिए इसके पूर्व का अध्याय । वन० १७।१०३, मत्स्य० १८६।१६-१७ ।
रेवतक--(गिरनार के सम्मुख जूनागढ़ की पहाड़ी) रुद्धगया-(कोल्हापुर के पास) पद्म० ६।१७६।४१। । आदि० २१८१८ (प्रभास के पास) एवं अध्याय २१९ खपद-(१) (गया के अन्तर्गत) वायु० ११११६४-६७, (वृष्ण्यन्धकों द्वारा उत्सव मनाये जाते थे), सभा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org