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तीर्वसूची
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गिरिव्रज के नाम से भी विख्यात थी और इसी नाम रपचत्रक---(एक तीर्थ.) पद्म० ६।१२९।९।
से जरासंघ की राजधानी थी। (२) (पंजाब में) रबस्पा--(एक नदी) यह पाणिनि के पारस्करादिगण पद्म० १।२८।१३ (यह एक देवीस्थान है)।
(६३१११५७) में उल्लिखित है। महाभाष्य, जिल्द राजावास--(कश्मीर में परशुराम द्वारा स्थापित ३, पृ० ९६ ने रथस्पा नदी का उल्लेख किया है। वन० विष्णुतीर्थ) नीलमत० १३८४ एवं १४४७ । (१७०।२०) ने रथस्था को गंगा, यमुना एवं राजेश्वर--(श्रीपर्वत के अन्तर्गत) लिङ्ग. ११९२।१५६ । सरस्वती के बीच में तथा सरयू एवं गोमती राधाकुण्ड--(मथुरा के अन्तर्गत) वराह० १६४।३४ । के पहले वणित किया है। रथाख्या नदी बाह. रामगिर्याश्रम-गरुड़. ११८१, मेघदूत १ एवं १२ सूत्र (१६।१५) में उल्लिखित है। देखिए आदि० (रामगिरि रामटेक है जो नागपुर के उत्तर पूर्व १७०।२०।
२८ मील और नन्दिवर्धन नामक वाकाटक राजरत्नेश्वर लिङ्ग--(वारा० के अन्तर्गत) स्कन्द०४।३३। धानी से दो मील दूर है)। १६५।
रामगुहा-(सानन्दूर के अन्तर्गत) वराह० १५०।१०। रन्तुक--(कुरुक्षेत्र की एक सीमा) वाम० २२१५१ एवं रामजन्म--(सरक के पूर्व में) पम० १।२६।७६ । ३३।२।
रामतीर्थ-(१) (गया के अन्तर्गत) वायु०१०८।१६-१८, रन्तुकाश्रम-(सरस्वती पर) वाम० ४२।५।
मत्स्य० २२१७०, अग्नि० ११६।१३; (२) (शूपरिक रम्भालिङ्ग--(वारा० के अन्तर्गत) लिङ्ग० (ती० क०, में) बन० ८५।४३, शल्य० ४९७ (जहाँ पर भार्गव पृ० १९५)।
राम ने वाजपेय एवं अश्वमेध यज्ञों में कश्यप को रम्भेश्वरलिङ्ग-(सरस्वती के अन्तर्गत) वाम० ४६।३९।। पृथिवी दक्षिणा के रूप में दे डाली थी) देखिए रविस्तव--(नर्मदा के अन्तर्गत) पद्म० १।१८।१९। उषवदात का नासिक अभिलेख (बम्बई गजे०, जिल्द रसा-(एक नदी) ऋ० ५।५३।९, १०१७५।६। इसका १६, पृ: ५७०); (३) गंगा के अन्तर्गत) नारद.
पता चलना कठिन है। सम्भवतः यह सिन्धु में २।४०१८५; (४)(गोमती पर) वन० ८४१७३-७४, मिलती है। ऋ० १०।१०८।१ से प्रकट होता है कि पद्म० १॥३२॥३७; (५) (गोदावरी में) ब्रह्म० यह अन्तःकथा सम्बन्धी नदी है। टामस महोदय ने १२३।१; (६) (महेन्द्र पर) पद्म० १।३९।१४। इसे पंजकोरा कहा है (जे० आर० ए० एस०, जिल्द रामलिङ्ग--(वारा० के अन्तर्गत) लिङ्ग (ती० कल्प०, १५, पृष्ठ १६१)।
पृ० ११३)। राघवेश्वर-मत्स्य० २२॥६० (यहाँ के श्राद्ध से अक्षय रामसर--(सानन्दूर के अन्तर्गत) वराह० १५०।१४-१८ फल प्राप्त होते हैं।
(एक कोस के विस्तार में)। राजखड्ग--(साभ्रमती पर) पद्म० ६।१३१।११६ रामहद-(थानेश्वर के उत्तर में पाँच झीलें) वन० एवं १२४।
८३।२६-४०, अनु० २५।४७, भाग० १०८४१५३, राजगृह-(१) (राजगिर,मगध की प्राचीन राजधानी) पद्म० ११२७।२३-३७ (जहाँ परशुराम ने अपने द्वारा
वन० ८४११०४, वायु० १०८।७३ (पुण्यं राजगृहं मारे गये क्षत्रियों के रक्त से पाँच झीलें भर दी थीं वनम्),अग्नि० १०९।२०,नारद० २।४७।७४, पद्म० और उनके पितरों ने जिन्हें उनकी प्रार्थना पर पाँच १।३८।२२ । देखिए ऐं. जि. (पृष्ठ ४६७-४६८) एवं तीर्थों में परिवर्तित कर दिया था), नीलमत० १३इम्पी० गजे. इण्डि० (जिल्द २१ पृष्ठ ७२) जहाँ ८७। १३९९ (यह ब्रह्मसर है, जहाँ भार्गव राम इसके चतुर्दिक की पाँच पहाड़ियों का उल्लेख है। यह ने अपने रक्तरंजित हाथों को धोकर कठिन तपस्या
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