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धर्मशास्त्र का इतिहास सांग ने गया एवं उरुबिल्ला या उरुबेला (जहाँ बुद्ध ने छः वर्षों तक कठिन तप किये थे और उनको सम्बोधि प्राप्त हुई थी) में अन्तर बताया है, तथापि गयामाहात्म्य ने महाबोधितरु को तीर्थस्थलों में गिना है और कहा है कि हिन्दू यात्री को उसकी यात्रा करनी चाहिए और यह बात आज तक ज्यों-की-त्यों मानी जाती रही है। हिन्दुओं ने बौद्ध स्थलों पर कब अधिकार कर लिया यह कहना कठिन है। बोधि-वृक्ष इस विश्व का सबसे प्राचीन ऐतिहासिक वृक्ष है। इसकी एक शाखा महान् अशोक (लगभग ई०पू०२५० वर्ष) द्वारा लंका में भेजी गयी थी और लंका के कण्डी नामक स्थान का पीपल वृक्ष वही शाखा है या उसका वंशज है। गयाशीर्ष पथरीली पर्वतमालाओं का एक विस्तार है, यथा गयाशिर, मुण्डपृष्ठ, प्रभास, गृध्रकूट, नागकूट, जो लगभग दो मील तक फैला हआ है।५।
हमने पहले देख लिया है कि गयायात्रा में अक्षयवट-सम्बन्धी कृत्य अन्तिम कृत्य हैं। गयावाल पुरोहित फलों की माला से यात्री के अंगूठे या हाथों को बाँध देते हैं और दक्षिणा लेते हैं । वे यात्री को प्रसाद रूप में मिठाई देते हैं, मस्तक पर तिलक लगाते हैं, उसकी पीठ थपथपाते हैं, 'सुफल' शब्द का उच्चारण करते हैं, घोषणा करते हैं कि यात्री के पितर स्वर्ग चले गये हैं और यात्री को आशीर्वाद देते हैं। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि 'धामी' नामक कुछ विशिष्ट पुरोहित होते हैं, जो पाँच वेदियों पर पौरोहित्य का अधिकार रखते हैं, यथा प्रेतशिला, रामशिला, रामकुण्ड, ब्रह्मकुण्ड एवं काकबलि, जो रामशिला एवं प्रेतशिला पर अवस्थित हैं। ये धामी पूरोहित गयावाल ब्राह्मणों से मध्यम पड़ते हैं।
गया में किन पितरों का श्राद्ध करना चाहिए, इस विषय में मध्य काल के निबन्धों में मतैक्य नहीं है। यु० एवं अन्य पुराणों में ऐसा आया है कि जो गया में श्राद्ध करता है वह पित-ऋण से मुक्त हो जाता है, या जो कुछ गया, धर्मपृष्ठ, ब्रह्मसर, गयाशीर्ष एवं अक्षयवट में पितरों को अर्पित होता है वह अक्षय हो जाता है। इन सभी स्थानों अथवा उक्तियों में 'पित' शब्द बहवचन में आया है। इससे प्रकट होता है कि गया में श्राद्ध तीन पूर्व पुरुषों का किया जाता है।३६ गौतम के एक श्लोक के अनसार माता के तीन पूर्व-पुरुषों का भी श्राद्ध किया जाता पिता एवं माता के पक्ष के छ: पूर्व पुरुषों की पत्नियों के विषय में ही मत-मतान्तर पाये जाते हैं। अग्नि० (११५।१०) ने एक विकल्प दिया है कि गयाश्राद्ध के देवता ९ या १२ हैं। जब वे ९ होते हैं तो तीन पितृ-पक्ष के पितरों, तीन मातृ-पक्ष के पुरुष पितरों और अन्तिम की (अर्थात मातृ-तर्ग के तीन पुरुष पितरों की) पत्नियों का श्राद्ध किया जाता है, किन्तु माता, पितामही एवं प्रपितामही के लिए पृथक रूप से श्राद्ध किया जाता है। जब गयाश्राद्ध में १२ देवता होते हैं तो एक ही श्राद्ध में पित एवं मात वर्गों के सभी पितरों की पत्नियों को सम्मिलित कर लिया जाता है। अपरार्क (पृ० ४३२) ने भी गयाश्राद्ध में अग्नि के समान विकल्प दिया है। स्मृत्यर्थसार एवं हेमाद्रि के मत से पितृ वर्ग के पितरों और उनकी पत्नियों (माता, मातामही आदि) के लिए अन्वष्टका-श्राद्ध एवं गयाश्राद्ध पृथक् होता है, किन्तु मातृ वर्ग के पितरों एवं उनकी पत्नियों का श्राद्ध एक ही में होता है (अतः देवता
३५. गयाशिर एवं गया बौद्धकाल में अति विख्यात स्थल थे, ऐसा बौद्ध ग्रन्यों से प्रकट होता है। देखिए महावग्ग (१।२१।१) एवं अंगुत्तर निकाय (जिल्द ४, पृ० ३०२)--'एक समयं भगवा गयायां विहरनि गयासीसे।'
३६. पितरो यत्र पूज्यन्ते तत्र मातामहा अपि । अविशेषेण कर्तव्यं विशेषानरकं व्रजेत् ॥ इति गौतमोक्तेः। त्रिस्थली० (पृ० ३४९), स्मृत्यर्थसार (१.० ५६)।
३७. ततश्चान्वष्टकादित्रये स्त्रीणां श्राद्धं पृथगेव। गयामहालयादौ तु पृथक् सह वा भर्तृ भिरिति सिद्धम् । अपरार्क (पृ० ४३२); गरुड़० (११८४।२४) में आया है-'श्राद्धं तु नवदेवत्यं कुर्याद् द्वादशदेवतम् । अन्वष्टकासु वृद्धौ च गयायां मृतवासरे॥
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