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अग्नि० ११६।१३, नारदीय० २।६०१२४; (२) ( साभ्रमती के अन्तर्गत) पद्म० ६।१६५।७ एवं १० । कर्मावरोहण - - ( मथुरा के अन्तर्गत ) वराह० (ती० क०, पृ० १९० ) ।
फर्मेश्वर-- (श्रीपर्वत के अन्तर्गत) लिंग० १९२/
धर्मशास्त्र का इतिहास
१५२ ।
कलविक -- अनु० २५।४३ । कलशाख्यतीर्थ -- ( जहाँ अगस्त्य एक कुम्भ से निकले
थे) नारदीय० २।४०।८७ ।
कलशेश्वर -- ( वारा० के अन्तर्गत ) लिंग० (ती० क०, पृ० ९९ ), पद्म० १।३७।७ ।
कलापक -- (केदार से एक सौ योजन के लगभग ) स्कन्द० १।२।६।३३-३४ ।
कलापग्राम -- ( सम्भवतः बदरिका के पास ) वायु० ९१।७, ९९/४३७, (यहाँ देवापि का निवास है और कलियुग के अन्त में यह कृतयुग प्रवर्तक हो जायगा ) भाग० १० १८७७ ।
कलापवन-पद्मं० १|२८|३ | कल्पग्राम- - ( मथुरा के अन्तर्गत ) वराह०
१६६/१२ ( उ० प्र० में, वहाँ पर वराह का मन्दिर है) । सम्भवतः यह आधुनिक काल्पी है । कल्माषी - ( यमुना ) सभा० ७८।१६ । कल्लोलकेश्वर - (नर्मदा के अन्तर्गत) कूर्म० २।४११
८८ ।
कश्मीर - मण्डल - प्राचीन नाम कश्मीर ही था, ऐसा लगता है । महाभाष्य ( जिल्द २, पृष्ठ ११९, पाणिनि ३।२।११४ ) में आया है— 'अभिजानासि देवदत्त कश्मीरात् गमिष्यामः ।' 'सिन्ध्वादिगण' (पाणिनि, ४ | ३ | ९३ ) में 'कश्मीर' शब्द देश के लिए आया है। नौलमत में कई स्थानों में 'कश्मीर' शब्द आया है, ( यथा श्लोक ५, ११, ४३, ५० ) किन्तु आगे 'काश्मीर' भी आया है। ह० चि० में 'कश्मीर' आया है । विक्रमांकदेवचरित (१८।१ एवं १८ ) में 'काश्मीर' आया है। नीलमत० (२९२-९३) में व्युत्पत्ति है - 'क' का अर्थ है जल (कं वारि हरिणा
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यस्माद्देशादस्मादपाकृतम् । कश्मीराख्यं ततो हास्य नाम लोके भविष्यति ।। ) । टॉलेमी ने इसे कस्पेइरिया कहा है और उसका कथन है कि वह बिदस्पेस ( वितस्ता ), सन्दबल ( चन्द्रभागा ) एवं अद्रिस (इरावती) के उद्गम स्थलों से नीचे की भूमि में अवस्थित है। देखिए टॉलेमी ( पृ० १०८/१०९) एवं नीलमत० (४०) । वन० ( १३० - १०) ने कश्मीर के सम्पूर्ण देश को पवित्र कहा है । आइनेअकबरी (जिल्द २, पृ० ३५४ ) में आया है कि सम्पूर्ण कश्मीर पवित्र स्थल है । और देखिए वन० ८२।९०, सभा० २७।१७, अनु० २५/८ | कश्मीर एवं जम्मू के महाराज के साथ सन् १८४६ की जो सन्धि हुई थी, उसके अनुसार महाराज की राज्यभूमि सिन्धु के पूर्व एवं रावी के पश्चिम तक थी, इम्पि० गजे० इण्डि० (जिल्द १५, पृ० ७२ ) । कश्मीर की घाटी लगभग ८० मील लम्बी एवं २० या २५ मील चौड़ी है (वही, जिल्द १५, पृष्ठ ७४) । और देखिए स्टीन-स्मृति ( पृ० ६३) एवं ह्वेनसांग ( बील का अनुवाद, जिल्द १, पृ० १४८ ) । ह्वेनसांग के मत से कश्मीर आरम्भिक रूप में, जैसा कि प्राचीन जनश्रुति से उसे पता चला था, एक झील थी और उसका नाम था सती-सर और वही आगे चलकर सती देश (नीलमत० ६४-६६ ) हो गया । उमा स्वयं कश्मीर की भूमि या देश रूप में हैं और स्वर्गिक वितस्ता, जो हिमालय से निकलती है, सीमन्त ( सिर की माँग ) है (बोल मत ० पृ० ४५ ) । दन्तकथा यों है— जब गरुड़ ने सभी नागों को खा डालना चाहा तो वासुकि नाग की प्रार्थना पर विष्णु ने वरदान दिया और वासुकि नाग अन्य नागों के साथ उस देश में अवस्थित हो गया । वरदान यह मिला था कि सतीदेश में कोई शत्रु नागों को नहीं मारेगा ( नीलमत० १०५-१०७ ) और नील सतीदेश में नागों का राजा हो गया (नीलमत ० ११० ) । नील का निवास शाहाबाद परगने के वेरना याग में था । जलोद्भव नामक एक राक्षस
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