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धर्मशास्त्र का इतिहास पाटला--(पितरों के लिए अति पवित्र) मत्स्य ०२२।२३। यनधर्मसूत्र (१।१।२७) में इसे आर्यावर्त की दक्षिणी पातन्धम- (पर्वत) वायु० ४५।९१ ।
सीमा कहा गया है। पापमोक्ष-- (गया के अन्तर्गत) अग्नि० ११६१८, पार्वतिका--(इस नदी पर श्राद्ध अत्यन्त फलदायक होता नारदीय० २।४७१७९।
है) मत्स्य० २२१५६। यह विन्ध्य से निकल कर पापप्रमोचन--(कोकामुख के अन्तर्गत) वराह० । चम्बल में मिलती है। १४०१५१-५४।
पावनी--(नदी) (कुरुक्षेत्र में घग्गर, अम्बाला जनपद पापप्रणाशन--(१) (यमुना पर) पद्म० ११३१।१५; या जिला) रामा० ११४३।१३। देखिए दे (पृ.
(२) (गोदावरी के अन्तर्गत) ब्रह्म० ९२।१ एवं १५५)। ४८-४९। इसे 'धौतपाप' एवं 'गालव' भी कहा गया। पालमञ्जर-(सूरक के पास) ब्रह्माण्ड० ३।१३३७॥
पालपञ्जर--(पर्वत) वायु० ७७।३७ (श्राद्धतीर्थ), पापसवनतीर्थ---(कश्मीर में एक धारा) राज० ११३२, ब्रह्माण्ड० ३।१३।३७ ('पालमंजर' पाठ आया है)।
ह. चि०१४।३६ । कपटेश्वर, संकर्षण नाग एवं पाप- पालेश्वर--(साभ्रमती के अन्तर्गत) पद्य० ६।१२४।२ सूदन एक ही हैं। इस पवित्र धारा पर शिव की पूजा (जहाँ चण्डी की प्रतिमा है)। कपटेश्वर के रूप में होती है।
पाशिनी--(शक्तिमान से निकली हई नदी) मत्स्य० पारा--(१) (विश्वामित्र ने यह नाम कौशिकी को ११४१३२। दिया) आदि० ७१।३०-३२; (२) (पारियन पाशुपततीर्थ--मत्स्य० २२।५६ (यहाँ श्राद्ध बड़ा फलसे निकल कर मालवा में सिन्धु से मिलने वाली नदी) दायक है)। वायु०४५।९८, मत्स्य०१३।४४ एवं ११४।२४, मार्क० पाशुपतेश्वर--(वाराणसी के अन्तर्गत) लिंग० १॥ ५४।२०। मत्स्य० (१३।४४) में पारा के तट पर ९२११३५। देवी को पारा कहा गया है। देखिए मालतीमाधव पाशा--(पारियात्र से निकली हुई नदी) ब्रह्माण्ड ०
(अंक ४ एवं ९) एवं बृहत्संहिता (१४।१०)। २।१६।२८। क्या यह 'पारा' का पाठान्तर है ? पाराशर्येश्वरलिंग--(वाराणसी के अन्तर्गत) लिंग० पाषाणतीर्थ-(नदी) देवल० (ती०क०,पृ० २४९)। (ती० क०, पृ० ५९)।
पिण्डारक--(काठियावाड़ के सम्भालिया विभाग में) पारिप्लव--(सरस्वती के अन्तर्गत) वन० ८३।१२, वन० ८२।६५-६७ (जहाँ कमल-चिह्नित मुद्राएँ पायी पद्म० १०२६।१०, वाम० ३४.१७ ।
गयो हैं), ८८।२१, मत्स्य०१३।४८, २२।६९, अनु० पारियात्र--(या पारिपात्र) (सात मुख्य पर्वत-श्रेणियों में २५।५७, विष्णु० ५।३७।६, भाग० ११।१।११ (कृष्ण
एक) इसे विन्ध्य का पश्चिमी भाग समझना चाहिए, के पुत्र साम्ब ने यहाँ गर्भवती स्त्री के रूप में वस्त्र धारण क्योंकि चम्बल, बेतवा एवं सिप्रा नदियाँ इससे निर्गत किया था और मुनियों ने उसे शाप दिया था), वराह. कही गयी हैं। देखिए कूर्म० ११४७।२४, भाग० १४४।१० (विष्णुस्थान), पद्म० १।२४।१४-१५ । दे ५।१९।१६, वायु० ४५।८८ एवं ९८, ब्रह्म० २७।२९। (पृ० १५७) का कथन है कि यह आधुनिक द्वारका से यह गोतमीपुत्र शातकणि के नासिक शिलालेख (सं० १६ मील पूर्व है। देखिए बम्बई गजे० (जिल्द ८, २) में उल्लिखित है (बम्बई गजे०, जिल्द १६, पृ० काठियावाड़, पृ० ६१३), जहाँ पिण्डारक से सम्बन्धित ५५०) । नासिक शिलालेख (संख्या १०) में इसे दन्तकथा दी हुई है। 'पारिचात'कहा गया है (वही, ५६९) । महाभाष्य पिंगाया आश्रम-अनु० २५।५५ । (जिल्द १, पृ० ४७५, पाणिनि २।४।१०) एवं बौधा- पिंगातीर्थ-वन० ८२।५७ (पिंगतीर्थ), पद्म० १०२४।६।
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