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तीर्थसूची
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अग्नि०२७३।१२ (राजधानी का आरम्भिक नाम कुश- (इन्द्रप्रस्थ में भी द्वारका है) पद्म० ६।२०२१४ एवं स्थली था)। आधुनिक द्वारका काठियावाड़ में ओखा ६२। के पास है। हरिवंश (२, विष्णुपर्व, अध्याय ५८ एवं द्वारका--(कृष्णतीर्थ) मत्स्य० २२।३९ । ९८) ने द्वारका के निर्माण की गाथा दी है। कुछ द्वारवती-यह द्वारका ही है। यहाँ ज्योतिलिंगों में प्राचीन जैन ग्रन्थों (यथा--उत्तराध्ययनसूत्र, एस्. एक नागेश का मन्दिर है। काशाखण्ड (७।१०रबी० ई०, जिल्द ४५, पृ० ११५) ने द्वारका एवं रैवतक १०५) में आया है-'यहाँ सभी वर्गों के लिए द्वार हैं, शिखर (गिरनार) का उल्लेख किया है। जातकों ने . अतः विद्वानों ने इसे द्वारवती कहा है। यहाँ जीवों की भी इसका उल्लेख किया है। देखिए डा०बी० सी० ला अस्थियों पर चक्रचिह्न है, क्या आश्चर्य है जब मनुष्यों का ग्रन्य 'इण्डिया ऐज डेस्क्राइब्ड इन अर्ली टेक्स्ट आव के हाथों में चक्र या शंख की आकृतियाँ हों?' द्वारकाबुद्धिज्म एण्ड जैनिज्म' (पृ० १०२, २३९)। प्रभास- माहात्म्य में ऐसा आया है कि मथुरा, काशी एवं खण्ड (स्कन्दपुराण) में द्वारका के विषय में ४४ अवन्ती में पहुंचना सरल है, किन्तु अयोध्या, माया एवं अध्यायों एवं २००० श्लोकों का एक प्रकरण आया है। द्वारका में पहुँचना कलियुग में बहुत कठिन है। इसे इसमें कहा गया है-'जो पुण्य वाराणसी, कुरुक्षेत्र एवं द्वारवती इसलिए कहा जाता है कि यह मोक्ष का नर्मदा की यात्रा करने से प्राप्त होता है, वह द्वारका मार्ग है। यूल आदि ने पेरिप्लस के 'बारके' से इसकी में निमिष मात्र में प्राप्त हो जाता है' (४५२)। पहचान की है (टॉलेमी, पृ० १८७-१८८)।। 'द्वारका की तीर्थयात्रा मुक्ति का चौथा साधन है। द्विदेवकुल-(श्रीपर्वत के अन्तर्गत) लिंग० (११९२॥ व्यक्ति सम्यक ज्ञान (ब्रह्मज्ञान),प्रयाग-मरण या केवल १५८)। कृष्ण के पास मिती-स्नान से मुक्ति प्राप्त करता है' द्वीप-(सम्भवतः गंगा के मुख पर का द्वीप) (स्कन्द० ७।४।४।९७-९८) । भविष्य० (कृष्णजन्म- नृसिंह० ६५।७ (ती० क०, पृ० २५१)। यहाँ खण्ड, उत्तरार्ध, अध्याय १०३) में द्वारका की उत्पत्ति विष्णु की पूजा अनन्त कपिल के रूप में के विषय में अतिशयोक्ति की गयी है। वहाँ द्वारका १०० होती है। योजन वाली कही गयी है। बीनाबायी द्वारा संकलित द्वीपेश्वर--(नर्मदा के अन्तर्गत) मत्स्य० १९३८०, द्वारका-पत्तलक नामक ग्रन्थ है जिसमें स्कन्द० में उप- पच० १११८।३८ एवं २३१७६।। स्थित द्वारका का वर्णन थोड़े में दिया गया है। यात्री वैतवन-(शतपथ ब्राह्मण १३।५।४।९ में आया है कि सर्वप्रथम गणेश की पूजा करता है, तब बलराम एवं मत्स्य देश के राजा द्वैतवन के नाम पर द्वैत सर का यह कृष्ण की, वह अष्टमी, नवमी या चतुर्दशी को रुक्मिणी नाम पड़ा) वन०११।६८,२४।१०,२३७।१२ (इसमें के मन्दिर में जाता है, इसके उपरान्त वह चक्रतीर्थ, एक सर था)। शल्य० ३७।२७ (सरस्वती पर तब द्वारका-गंगा तथा शंखोद्धार में जाता है और बलराम आये थे), वाम० २२।१२।४७१५६। यह गोमती में स्नान करता है। द्वारकानाथ का सानिहत्य कुण्ड के पास था। मन्दिर गोमती के उत्तरी तट पर स्थित है। प्रमुख मन्दिर की पाँच मञ्जिल हैं, वह १०० फुट ऊंचा
और १५० फुट ऊंचे शिखर वाला है। देखिए डा० धनदेश्वर--(वाराणसी के अन्तर्गत) लिंग० (ती० क०, ए० डी० पुसल्कर का लेख (डा० बी० सी० ला पृ०७०)। भेंट-ग्रन्थ, जिल्द १, पृ० २१८) जहाँ द्वारका धन्वतील्पा-(पारियात्र पर्वत से निकली हुई नदी) के विषय में अन्य सूचनाएं भी दी हुई हैं। (२) मत्स्य० ११४।२४।
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