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धर्मशास्त्र का इतिहास
वामन० (३४१३) एवं नारदीय० (उत्तर, ६५/४-७) में कुरुक्षेत्र के सात वनों का उल्लेख है, यथा-- काम्यक, अदितिवन, व्यासवन, फलकीवन, सूर्यवन, मधुवन एवं सीतावन ( देखिए आर्यालाजिकल सर्वे रिपोर्ट्स फार इण्डिया, जिल्द १४, पृ० ९०-९१ ) । शल्यपर्व (अध्याय ३८) में कहा गया है कि संसार सात सरस्वतियों द्वारा घिरा हुआ है, यथा -- सुप्रभा ( पुष्कर में, जहाँ ब्रह्मा ने एक महान यज्ञ करते समय उसका स्मरण किया था), कांचनाक्षी ( नैमिष वन में ), विशाला ( गया देश में गय द्वारा आवाहित की हुई ), मनोरमा ( उत्तर कोसल में औद्दालक के यज्ञ में), सुरेणु (ऋषभ द्वीप में कुरु के यज्ञ में), ओघवती ( कुरुक्षेत्र में वसिष्ठ द्वारा कही गयी ) एवं विमलोदा ( जब ब्रह्मा ने हिमालय में पुनः यज्ञ किया) । वामन० (३४।६८) में सरस्वती के सम्बन्ध में सात नदियाँ अति पवित्र कही गयी हैं ( यद्यपि ९ के नाम आये हैं) यथा--सरस्वती, वैतरणी, आपगा, गंगा- मन्दाकिनी, मधुस्रवा, अम्बुनवी, कौशिकी, दृषद्वती एवं हिरण्वती ।
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कुरुक्षेत्र को सन्निहती या सन्निहत्या भी कहा गया है (देखिए तीथों की सूची ) । वामन० (३२।३-४ ) का कथन है कि सरस्वती प्लक्ष वृक्ष से निकलती है और कई पर्वतों को छेदती हुई द्वैतवन में प्रवेश करती है। इस पुराण में मार्कण्डेय द्वारा की गयी सरस्वती की प्रशस्ति भी दी हुई है। अलबरूनी (सचौ, जिल्द १, पृ० २६१ ) का कथन है कि सोमनाथ से एक बाण-निक्षेप की दूरी पर सरस्वती समुद्र में मिल जाती है। एक छोटी, किन्तु पुनीत नदी सरस्वती महीकण्ठ नाम की पहाड़ियों से निकलती है और पालनपुर के उत्तर-पूर्व होती हुई सिद्धपुर एवं पाटन को पार करती कई मीलों तक पृथिवी के अन्दर बहती है और कच्छ के रन में प्रवेश कर जाती हैं (बम्बई गजेटियर, जिल्द ५, पृ० २८३) ।
मथुरा
शूरसेन देश की मुख्य नगरी मथुरा के विषय में आज तक कोई वैदिक संकेत नहीं प्राप्त हो सका है। किन्तु ई० पू० पाँचवीं शताब्दी से इसका अस्तित्व सिद्ध हो चुका है। अंगुत्तरनिकाय (१।१६७, एकं समयं आयस्मा महाकच्छानो मधुरायं विहरति गुन्दावने ) एवं मज्झिम० (२।८४) में आया है कि बुद्ध के एक महान् शिष्य महाकच्छायन ने मथुरा
अपने गुरु के सिद्धान्तों की शिक्षा दी। मेगस्थनीज सम्भवतः मथुरा को जानता था और इसके साथ हरेक्लीज (हरिकृष्ण ? ) के सम्बन्ध से भी परिचित था । 'माथुर' (मथुरा का निवासी, या वहां उत्पन्न हुआ या मथुरा से आया हुआ) शब्द जैमिनि के पूर्वमीमांसासूत्र में भी आया है। यद्यपि पाणिनि के सूत्रों में स्पष्ट रूप से 'मथुरा' शब्द नहीं आया है, किन्तु वरणादि-गण ( पाणिनि, ४।२।८२) में इसका प्रयोग मिलता है। किन्तु पाणिनि को वासुदेव, अर्जुन (४|३| ९८), यादवों के अन्धक- वृष्णि लोग, सम्भवतः गोविन्द भी ( ३।१।१३८ एवं वार्तिक 'गविच विन्देः संज्ञायाम् ' ) शात थे । पतञ्जलि के महाभाष्य में मथुरा शब्द कई बार आया है (जिल्द १, पृ० १८, १९ एवं १९२, २४४, जिल्द ३, पृ० २९९ आदि) । कई स्थानों पर वासुदेव द्वारा कंस के नाश का उल्लेख नाटकीय संकेतों, चित्रों एवं गाथाओं के रूप में आया है। उत्तराध्ययनसूत्र में मथुरा को सौयंपुर कहा गया है, किन्तु महाभाष्य में उल्लिखित सौर्य नगर मथुरा ही है, ऐसा कहना सन्देहात्मक है। आदिपर्व ( २२१।४६) में आया है कि मथुरा अति सुन्दर गायों के लिए उन दिनों प्रसिद्ध थी। जब जरासन्ध के वीर सेनापति हंस एवं डिम्भक यमुना में दूब गये, और जब जरासन्ध दुःखित होकर मगध चला गया तो कृष्ण कहते हैं; 'अब हम पुनः प्रसन्न होकर मथुरा में रह सकेंगे' (सभापर्व १४।४१-४५) । अन्त में जरासन्ध के लगातार आक्रमणों से तंग आकर कृष्ण ने यादवों को द्वारका में ले जाकर बसाया ( समापर्व १४ । ४९-५० एवं ६७ ) ।
११. कुरुक्षेत्र के तीर्थों की सूची के लिए देखिए ए० एस० आर० आब इण्डिया (जिल्ब १४, १०९७-१०६) ।
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