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उमाहक -- (नर्मदा के अन्तर्गत ) कूर्म ० २।४१।५७ । उर्जन्त -- ( अपरान्त में) ब्रह्माण्ड० ३।१३।५३ (यहाँ योगेश्वरालय एवं वसिष्ठाश्रम हैं) । उर्वशीकुण्ड -- ( बदरी के अन्तर्गत ) वराह० १४१/५१-६४, नारदीय० २।६७/६५ । उर्वशीतीर्थ -- (१) (प्रयाग के अन्तर्गत ) वन० ८४ । १५७, मत्स्य० १०६।३४, पद्म० १|३८|६४; (२) ( गोदावरी के अन्तर्गत ) ब्रह्म० १७१ १ । उर्वशी - पुलिन -- (प्रयाग के अन्तर्गत) मत्स्य० २२६६ एव १०६, ४३४ ३५, अनु० २५।४० | देखिए इस ग्रन्थ का खण्ड ४, अध्याय १३ ।
उर्वशी - लिंग -- ( वारा० के अन्तर्गत) लिंग० (ती० क०, पृ० ६६) ।
उर्वशीश्वर - ( वारा० के अन्तर्गत) लिंग० (ती० क०, पृ० ७२ ) ।
उष्णतीर्थ - - मत्स्य ० १३।४२ ( देवी को गर्म जल के तीर्थों में अभया कहा जाता है) । उष्णगंगा-- (एक स्नान - तीर्थ ) वन० १३५ ७ । ऊर्जयत् - ( पर्वत ) रुद्रदामन् के जूनागढ़ शिलालेख ( एपि० इण्डि०, जिल्द ८, पृ० ३६ एवं ४२ ) तथा गुप्त इंस्क्रिप्शन्स ( पृ० ४५) में इसका नाम आया है ।
धर्मशास्त्र का इतिहास
ऋ
ॠल या ऋक्षवान् ~~ (ऋक्षों अर्थात् भालुओं से परिपूर्ण, भारतवर्ष को सात मुख्य पर्वत श्रेणियों में एक ) वायु ० ४५।९९- १०१ एवं ९५।३१, मत्स्य० ११४।१७, ब्रह्म० २७/३२. वराह० ८५ ( पद्य ) । शोण, नर्मदा, महानदी आदि नदियाँ इसी से निकली हैं। अतः यह विन्ध्य का पूर्वी भाग है जो बंगाल से नर्मदा ओर शोण के उद्गम स्थलों तक फैला हुआ है । ऋक्षवान् नासिक गुफा के दूसरे शिलालेख में उल्लिखित है ( बम्बई गजेटियर, जिल्द १६, पृ० ५०५; विझवत अर्थात् विन्ध्य ऋक्षवान् ), यह टालेमी का औझेन्सन है ( पृ० ७६ ) । विल्सन (जिल्द २, पृ० १२८ ) के अनुसार ऋक्ष गोंडवाना का पर्वत
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है । इसकी पहचान कठिन है क्योंकि वे नदियाँ जो मत्स्यपुराण एवं वन० में ऋक्ष से निकली हुई कही गयी हैं, वे मार्कण्डेयपुराण ( ५४।२४-२५) में विन्ध्य से निकली हुई उल्लिखित हैं ।
ऋण- तीर्थ -- ( नर्मदा के अन्तर्गत) मत्स्य० १९११२७, कूर्म० २।४१।१९ एवं २९ ।
ऋणमोक्ष -- ( गया के अन्तर्गत ) नारद० २|४७१७९, अग्नि० ११६।८।
ऋणमोचन या ऋण प्रमोचन - - (१) (कुरुक्षेत्र के अन्तर्गत ) वाम० ४१।६, देखिए ए० एस० आर० ( जिल्द १४, पृष्ठ ७६ ) जिसके अनुसार यह सरस्वती के तट पर कपालमोचन तीर्थ पर स्थित है; (२) (प्रयाग के निकट ) मत्स्य० २२६७, ( यहाँ का श्राद्ध अक्षय फल देता है) १०७।२० ; ( ३ ) ( गोदावरी के अन्तर्गत) ब्रह्म० ९९| १ ( ४ ) ( आमलक ग्राम के अन्तर्गत एक उपतीर्थ ) नृसिंह० ६६।२८ (तीर्थकल्प०, पृ० २५५ ); (५) (धारा० के अन्तर्गत )
स्कन्द० ४।३३।११७ ।
ऋणान्तकूप - पद्म० १।२६।९२ ।
ऋषभ -- ( पाण्ड्य देश में पर्वत ) वन० ८५।२१, भाग० ५।१९।१६, १०।७९।१५, मत्स्य० १२१।७२ एवं १६३।७८ । दे (पृष्ठ ११९) का कथन है कि यह मदुरा में पलनी पहाड़ी है। ऋषभतीयं -- (१) (वारा० के अन्तर्गत) कूर्म० १/३५।३, पद्म० १।३७।३; (२) ( कोशला अर्थात् दक्षिण कोशला में) देखिए कुमारवरदत्त का गुंजी प्रस्तराभिलेख (एपि० इण्डि०, जिल्द २७, पृष्ठ ४८, जहाँ महामहोपाध्याय प्रो० मीराशी ने इस पर विवेचन उपस्थित किया है। एक अमात्य ने ब्राह्मणों को दो हजार गौएँ दी थीं। प्रो० मीराशी ने इस शिलालेख को प्रथम शताब्दी का कहा है। वन० ८५।१० का कथन है कि जो यात्री यहाँ पर तीन दिनों का उपवास करता है, उसे वाजपेय यज्ञ का फल मिलता है। देखिए पद्म० १|३९|१० । ऋषभद्वीप-वन० ८४।१६०, पद्म० १|३८|६७ ।
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