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कुरुक्षेत्र के तीर्थों का अनुसंधान
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से) नीचे गिर पड़ने का भय है, किन्तु वे, जो कुरुक्षेत्र में मरते हैं पुनः पृथिवी पर नहीं गिरते, अर्थात् वे ' नहीं लेते।
पुनः जन्म
यह ज्ञातव्य है कि यद्यपि वनपर्व ने ८३ वें अध्याय में सरस्वतीतट पर एवं कुरुक्षेत्र में कतिपय तीर्थों का उल्लेख किया है, किन्तु ब्राह्मणों एवं श्रौतसूत्रों में उल्लिखित तीर्थों से उनका मेल नहीं खाता, केवल 'विनशन ' ( वनपर्व ८३।११) एवं 'सरक' (जो ऐतरेय ब्राह्मण का सम्भवतः परिसरक है) के विषय में ऐसा नहीं कहा जा सकता। इससे यह प्रकट होता है कि वनपर्व का सरस्वती एवं कुरुक्षेत्र से संबन्धित उल्लेख श्रौतसूत्रों के उल्लेख से कई शताब्दियों के पश्चात् का है । नारदीय ० ( उत्तर, अध्याय ६५) ने कुरुक्षेत्र के लगभग १०० तीर्थों के नाम दिये हैं। इनका विवरण देना यहाँ सम्भव नहीं है, किन्तु कुछ के विषय में कुछ कहना आवश्यक है । पहला तीर्थ है ब्रह्मसर जहाँ राजा कुरु संन्यासी के रूप में रहते
(वन० ८३८५, वामन० ४९ । ३८-४१, नारदीय०, उत्तर ६५।९५ ) । ऐंश्येण्ट जियाग्राफी आव इण्डिया ( पृ० ३३४(३३५) में आया है कि यह सर ३५४६ फुट ( पूर्व से पश्चिम) लम्बा एवं उत्तर से दक्षिण १९०० फुट चौड़ा था । वामन ० (२५/५०-५५ ) ने सविस्तर वर्णन किया है और उसका कथन है कि यह आधा योजन विस्तृत था । चक्रतीर्थ सम्भवतः वह स्थान है जहाँ कृष्ण ने भीष्म पर आक्रमण करने के लिए चक्र उठाया था (वामन० ४२।५, ५७८९ एवं ८१1३) । ध्यासस्थली थानेसर के दक्षिण-पश्चिम १७ मील दूर आधुनिक बस्थली है जहाँ व्यास ने पुत्र की हानि पर मर जाने का प्रण किया था ( वन० ८४ । ९६; नारदीय०, उत्तरार्ध ६५।८३ एवं पद्म० ११२६ । ९०-९१) । अस्थिपुर (पद्म०, आदि, २७/६२) थानेसर के पश्चिम और औजसघाट के दक्षिण है, जहाँ पर महाभारत में मारे गये योद्धा जलाये गये थे । कलिंघम (आयलॉजिकल सर्वे रिपोर्ट्स ऑव इण्डिया, जिल्द २, पृ० २१९ ) के मत से चक्रतीर्थ अस्थिपुर ही है और अलबरूनी के काल में यह कुरुक्षेत्र में एक प्रसिद्ध तीर्थ था। पृथूदक, जो सरस्वती पर था, वनपर्व (८३| १४२-१४९) द्वारा प्रशंसित है- 'लोगों का कथन है कि कुरुक्षेत्र पुनीत है, सरस्वती कुरुक्षेत्र से पुनीततर है, सरस्वती नदी से उसके (सरस्वती के ) तीर्थ-स्थल अधिक पुनीत हैं और पृथूदक इन सभी सरस्वती के तीर्थों से उत्तम है। पृथूदक से बढ़कर कोई अन्य तीर्थ नहीं है' ( वन० ८३ । १४७; शान्ति० १५२/११ पद्म०, आदि २७।३३, ३४, ३६ एवं कल्प ० तीर्थ, पृ० १८० - १८१ ) । शल्यपर्व ( ३९।३३ ३४ ) में आया है कि जो भी कोई पुनीत वचनों का माठ करता हुआ सरस्वती के उत्तरी तट पर पृथूदक में प्राण छोड़ता है, दूसरे दिन से मृत्यु द्वारा कष्ट नहीं पाता ( अर्थात् वह जन्म-मरण से मुक्त हो जाता है) । वामन० (३९।२० एवं २३ ) ने इसे ब्रह्मयोनितीर्थ कहा है। पृथूदक आज का पेहोवा है जो थानेसर से १४ मील पश्चिम करनाल जिले में है ( देखिए एपिग्रैफिया इण्डिका, जिल्द १, पृ० १८४) ।
व्युत्पत्ति दी है ( वनपर्व ८३।६ ) – कुत्सितं रोतीति कुरु पापं तस्य क्षेपणात् त्रायते इति कुरुक्षेत्रं पापनिवर्तकं ब्रह्मोपलब्धिस्थानत्वाद् ब्रह्मसदनम् ।’'सम्यक् अन्तो येषु क्षत्रियाणां ते समन्ता रामकृतरुधिरोदहवाः, तेषां पञ्चकं समन्तपञ्चकम् ।' देखिए तीयं ० ( पृ० ४६३)।
९. ग्रहनक्षत्रताराणां कालेन पतनाद् भयम् । कुरुक्षेत्रमृतानां तु न भूयः पतनं भवेत् ॥ नारदीय (उत्तर, २६४ | २३-२४), वामन० (३३।१६ ) ।
१०. पुण्यमाहुः कुरुक्षेत्रं कुरुक्षेत्रात्सरस्वती । सरस्वत्याश्च तीर्थानि तीर्थेभ्यश्च पृथूदकम् ॥ पृथूदकात्तीर्थतमं नान्यत्तीर्थं कुरूद्वह । ( वन० ८३ । १४७) । वामन० ( २२।४४) का कथन है--' तस्यैव मध्ये बहुपुण्ययुक्तं पृथूदकं पापहरं शिवं च । पुण्या नवी प्राइमुखतां प्रयाता जलौघयुक्तस्य सुता जलाढ्या ॥'
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