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धर्मशास्त्र का इतिहास इन्द्रद्युम्न का नाम बहुत-से चक्रवर्ती राजाओं में आया है। कूर्म० (२१३५।२७) ने भी पुरुषोत्तम की संक्षेप में किन्तु रंगहीन चर्चा की है (तीर्थ नारायणस्यान्यन्नाम्ना तु पुरुषोत्तमम्)। राजेन्द्रलाल मित्र ने कल्पना की है कि पुरुषोत्तम क्षेत्र के इतिहास के तीन काल हैं--आरम्भिक हिन्दू काल, बौद्ध काल एवं वैष्णव काल (पाँचवी शताब्दी के उपरान्त जब कि बौद्ध धर्म पतनोन्मुख हो चला था)। उनका कथन है कि लगभग ७वीं शताब्दी के उपरान्त के ताड़पत्रों पर मन्दिर वृत्तान्त पर्याप्त संख्या में प्राप्त होते हैं किन्तु बौद्धकालीन वृत्तान्त अविश्वसनीय हैं (प. १०४) और सम्भवतः पुरी बौद्ध धार्मिक स्थल था (ऐण्टीक्विटीज़ आव उड़ीसा पृ० १०७)। उड़ीसा में ये बौद्ध संकेत मिलते हैं-धौली पहाड़ी के अशोक प्रस्तर-लेख (कॉर्प स इंस्क्रिप्शनम् इण्डिकेरम, जिल्द १, पृ० ८४-१००), भुवनेश्वर के पश्चिम लगभग पाँच मील की दूरी पर खण्डगिरि पहाड़ी पर बौद्धकालीन गुफाएँ, फाहियान द्वारा वर्णित बुद्ध के दन्तावशेष के जुलूस के समान जगन्नाथ-रथ की. यात्रा तथा कृष्ण, सुभद्रा एवं बलराम की भद्दी तीन काष्ठ-प्रतिमाएँ, जो कहीं और नहीं पायी जाती
और जो बौद्ध धर्म की बुद्ध, धर्म एवं संघ की तीन विशिष्टताओं की ओर संकेत करती हैं। देखिए मित्र का ग्रन्थ 'ऐण्टीक्विटीज़ आव उडीसा' (जिल्द २, प०१२२-१२६) जहाँ उन्होंने काष्ठ-खण्ड दिखाये हैं जिन पर प्रतिमाओं के चिह्न अंकित हैं और जो बौद्ध प्रतीकों के समानुरूप ही उनके (डा. मित्र के) द्वारा सिद्ध किये गये हैं; और देखिए कनिंघम की पुस्तक 'ऐश्येण्ट जियॉग्रफी आव इण्डिया' (पृ० ५१०-५११)। सेवेल का कथन है कि जगन्नाथ की प्रतिमा प्रारम्भिक रूप में त्रिशूलों में से एक ही थी (जे० आर० ए० एस०, जिल्द १८.प.४०२, नयो प्रति)।
आधुनिक काल में जगन्नाथ-धाम का घेरा वर्गाकार है जो २० फुट ऊँची एवं ६५२ फुट लंबी प्रस्तर-भित्तियों से बना है, जिसमें १२० मंदिर हैं, जिनमें १३ शिव के, कुछ पार्वतौ के, एक सूर्य का तथा अन्य विभिन्न देव-रूपों के मन्दिर हैं। यह जगन्नाथ-ध.म की धार्मिक सहिष्णुता का परिचायक है। ब्रह्मपुराण (५६।६०-६४ एवं ६९-७०)ने भी इस सहिष्णुता की ओर संकेत किया है। पुरुषोत्तमक्षेत्र ने शैवों एवं वैष्णवों के पारस्परिक मतभेदों का समन्वय कर दिया है। यहाँ पर हिन्दू धर्म के अधिकांशतः सभी स्वरूपों का प्रतिनिधित्व हुआ है। जगन्नाथ के महामन्दिर के चार प्रकोष्ठ हैं--भोगमन्दिर (जहाँ भोग चढ़ाये जाते हैं), नटमन्दिर (संगीत एवं नृत्य का स्तम्भाकार भवन), जगनाथ-मन्दिर (जहाँ यात्री एकत्र होते हैं) और चौथा है अन्तःप्रकोष्ठ जहाँ प्रतिमाएँ हैं। जगन्नाथ के बृहदाकार मन्दिर का उत्तुंग शिखर सूच्याकार है और १९२ फुट ऊँचा है जिसके ऊपर चक्र एवं पताका है।२५ जगन्नाथ का मन्दिर (प्रासाद) समुद्र-तट से लगभग सात फर्लाग की दूरी पर अवस्थित है और आस-पास की भूमि से लगभग बीस फुट ऊँची भूमि पर खड़ा है, उस ऊँची भूमि (टीले या ढुह) को नीलगिरि कहा जाता है। मन्दिर के चतुर्दिक धेरे की चारों दिशाओं में चार विशाल द्वार हैं,
२३. परेऽन्ये महाधनुर्धराश्चक्रवतिनः केचित् सुद्युम्नभूरिद्युम्नेन्द्रद्युम्नकुवलयाश्वयौवनाश्ववध्रपश्वाश्वपतिशशिबिन्दुहरिश्चन्द्राम्बरीषननक्तुसर्यातिययात्यनरण्योक्षसेनादयः। मैत्रायणी उपनिषद् (१।४)।
२४. शैवभागवतानां च वादार्थप्रतिषेधकम् । अस्मिन्क्षेत्रवरे पुण्ये निर्मले पुरुषोत्तमे ॥ शिवस्यायतनं देव करोमि परमं महत् । प्रतिष्ठेयं तथा तत्र तव स्थाने च शंकरम् ॥ ततोज्ञास्यन्ति लोकेऽस्मिन्नेकमूर्ती हरीश्वरौ। प्रत्युवाच जगन्नाथः स पुनस्तं महामुनिम्॥...नावयोरन्तरं किञ्चिदेकभावौ द्विधा कृतौ ॥ यो रुद्रः स स्वयं विष्णुर्यो विष्णुः स महेश्वरः॥ ब्रह्मपुराण (५६४६०-६६ एवं ६९-७०)।
२५. मन्दिर के ऊपर के चक्र का वर्णन ब्रह्मपुराण में इस प्रकार आया है-'यात्रां करोति कृष्णस्य यया यः समाहितः। सर्वपापविनिर्मुक्तो विष्णुलोकं प्रजेन्नरः॥ चक्रं दृष्ट्वा हरेर्दूरात् प्रासादोपरि संस्थितम् । सहसा मुच्यते पापानरो भक्त्या प्रणम्य तत् ॥ (५११७०-७१, नारदीय०, उत्तर, ५५३१०-११)।
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