________________
जगन्नाथ को रथयात्रा एवं पूजा-व्यवस्था
१३८३
जिनमें पूर्व वाला अधिक सुन्दर है। द्वार के दोनों पाश्वों में एक-एक विशाल, घुटने टेककर बैठे हुए सिंह की प्रतिमाएँ हैं और इसी से इस द्वार को सिंह-द्वार कहा जाता है।
___ जगन्नाथ के महामन्दिर की कुछ विशिष्ट परिपाटियाँ भी हैं। प्रथम जगन्नाथ के प्रांगण एवं सिंहद्वार के बाहर कोई जाति-निषेध नहीं है। जगन्नाथ सभी लोगों के देवता हैं। दूसरी विशेषता यह है कि जगन्नाथ के भोग के रूप में पका हआ पुनीत चावल इतना पवित्र माना जाता है कि उसे प्रसाद रूप में ग्रहण करने में जाति-बन्धन टट जाते तक कि नीच जाति के लोगों से भी पुरी के पुरोहित पवित्र भात ग्रहण कर लेते हैं। भावना यह है कि पका हुआ चावल एक बार जगन्नाथ के समक्ष रखे जाने पर अपनी पुनीतता कभी भी नहीं त्यागता। इसी से यह महाप्रसाद सुखाकर भारत के सभी भागों में ले जाया जाता है और वैष्णवों के आवधिक श्राद्धों में पितरों को दिये जानेवाले भोग में इसका प्रयक्त एक कण महापुण्यकारक माना जाता है (देखिए डा० मित्र को 'ऐण्टीक्विटीज आव उड़ीसा, जिल्द १, पृ० १३१-१३४)। तीसरी विशेषता है आषाढ़ के शुक्लपक्ष की द्वितीया की रथयात्रा का उत्सव, जो पुरी के २४ महोत्सवों में एक है। रथयात्रा के मार्मिक उत्सव का वर्णन हण्टर ('उड़ीसा', जिल्द १, पृ० १३१-१३४) ने विस्तार के साथ किया है। यह आषाढ़ शुक्ल पक्ष के दूसरे दिन सम्पादित होता है । जगन्नाथ का रथ ४५ फुट ऊँचा तथा ३५ फुट वर्गाकार है ; इसमें १६ तीलियों वाले ७ फुट व्यास के १६ पहिये हैं और कलँगी के रूप में गरुड़ बैठे हैं। दूसरा रथ सुभद्रा का है, जो जगन्नाथ-रथ से थोड़ा छोटा है और इसमें १२ तीलियों वाले १२ पहिये लगे हैं और शिखर पर पद्म है। तीसरा रथ बलराम का है, जिसमें १४ तीलियों वाले १४ पहिये हैं और कलँगी के रूप में हनुमान हैं। ये रथ यात्रियों एवं श्रमिकों द्वारा मन्दिर से लगभग दो मील दूर जगन्नाथ के ग्रामीण भवन तक खींचकर ले जाये जाते हैं। खींचते समय सहस्रों यात्री भावाकूल हो संगीत एवं जयकारों का प्रदर्शन करते हैं । अंग्रेजी साहित्य में ऐसे भ्रामक संकेत कर दिये गये हैं कि वहुत-से यात्री धार्मिक उन्माद में आकर अपने को रथ के चक्कों के समक्ष फेंक देते थे और मर जाते थे । किन्तु ऐसी धारणाएँ सर्वथा निर्मूल हैं। ऐसी घटनाओं का हो जाना सम्भव भी है, क्योंकि जहाँ सहस्रों यात्री हों वहाँ दबकर मर जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। किन्तु अंग्रेजी साहित्य में जो भ्रामक संकेत कर दिये गये हैं वे भारतीय मोहक धार्मिकता के विरोध में पड़ते हैं। हण्टर ('उड़ीसा', जिल्द १, पृ० १३३-१३४) ने इस गलत धारणा का निराकरण किया है और डा. राजेन्द्रलाल मित्र (ऐण्टीक्विटीज आव उड़ीसा, जिल्द २, पृ० ९९) ने कहा है-'जगन्नाथ से अधिक कोई अन्य भारतीय देव इतना बदनाम नहीं किया गया है। यह निश्चित है कि जगन्नाथ से बढ़कर कोई अन्य देवता इतना कोमल एवं सौम्य नहीं है और उनके भक्तों के सिद्धान्त रक्तपात के सर्वथा विरुद्ध हैं। जो निन्दाजनक बात अन्यायपूर्ण ढंग से इस निर्दोष विषय में कही गयी है वह कहीं और नहीं पायी जाती।' शुक्ल पक्ष की दशमी को रथ पुनः लौट आता है।
डा० मित्र (जिल्द २, पृ० ११२) के मतानुसार पुरी का प्राचीनतम मन्दिर है अलाबुकेश्वर, जिसे भुवनेश्वर शिखर के निर्माता ललाटेन्दु केसरी (६२३-६७७ ई०) ने बनवाया था; इसके पश्चात् मार्कण्डेश्वर का और तब जगन्नाथमन्दिर का प्राचीनता में स्थान है (जिल्द २, पृ० ११२) । मनमोहन चक्रवर्ती ने जगन्नाथ-मन्दिर के निर्माण की तिथि
२६. हण्टर ने अपने ग्रन्थ 'उड़ीसा' (पृ० १३५-१३६, जिल्द १) में लिखा है कि २१ जातियों एवं वर्गों (जिनमें ईसाई एवं मुस्लिम भी सम्मिलित हैं) का प्रवेश निषिद्ध है, क्योंकि वे मांसाहारी एवं जीवहत्या करनेवाले होते हैं। मछली मारने वालों एवं कुम्हारों को, जिन्हें हण्टर ने अपनी सूची में रखा है, बाहरी प्रांगण में प्रवेश करने का अधिकार है।
२७. विद्यानिवास (बंगाल के लेखक, १५वीं शताब्दी के लगभग मध्य भाग में) ने जगन्नाथ-सम्बन्धी १२ मासों में किये जानेवाले १२ उत्सवों पर 'द्वादशयात्राप्रयोगप्रमाण' नामक पुस्तक लिखी है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org