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धर्मशास्त्र का इतिहास अहल्यातीर्थ-(१) (गो० के अन्तर्गत) ब्रह्म० ८७११; आदिपाल-(गया के अन्तर्गत) वायु० १०८।६५,
(२) (नर्मदा के अन्तर्गत) पम० १११८३८४, मत्स्य (मुण्डपृष्ठ के आगे हाथी के रूप में गणेश) १०९।१५। १९११९०-९२, कूर्म० २।४१-४३।
आनन्द--देखिए 'नन्दीतट' के अन्तर्गत। अहल्याहद-(गौतम के आश्रम के पास) वन० ८४। आनन्दपुर--(वाराणसी के अन्तर्गत) कूर्म० १।३५।१५, १०९, पद्म० ११३८।२६ ।
पद्म०२३७।१८। आपगा-(कुरुक्षेत्र के अन्तर्गत पवित्र सात या नौ नदियों
में एक का नाम) वन० ८३।६८, वाम० ३४१७, पद्म० आकाश-(वाराणसी के अन्तर्गत) कूर्म० ११३५१३, ११३६।१-६ एवं वाम०३६।१-४, (मानुष के पूर्व एक पन०१॥३७॥३॥
कोस को दूरी पर) नीलमत० १५८ । देखिए ऐं० जि०, आकाशगङ्गा--(१) (गया के अन्तर्गत) वायु०११२।२५, पृ० १८५ जहाँ यह स्यालकोट के उत्तरपूर्व जम्बू पहा
अग्नि० ११६।५; (२) (सह्य पर्वत पर) नरसिंह. ड़ियों से निकलती हुई अयक् नदी के समान कही गयी ६६।३५ (आमलक का एक उपतीर्थ)।
है। कनिंघम (आरक्या० स० ई०, जिल्द १४, पृ० आकाशलिंग-(वाराणसी के अन्तर्गत) लिंग० (तीर्थ- . ८८-८९) का कथन है कि आपगा या ओघवती कल्प०, पृ० ५१)।
चितांग की शाखा है। आङ्गिरसतीर्थ--(नर्मदा के अन्तर्गत) कूर्म० २।४११३१- आपया--(एक नदी, सम्भवतः सरस्वती एवं दृषद्ती के ३३, पद्म० १११८।५०।"
मध्य प्रथम की एक सहायक नदी) ऋ० ३।२३।४। आङ्गिरसेश-(वाराणसी के अन्तर्गत) लिंग० (तीर्थ- टामस के मत से यह ओघवती ही है, जे० आर० ए० कल्प०,पृ० ११७)।
एस०, जिल्द १५, पृ० ३६२ । आत्मतीर्थ--(गोदावरी के अन्तर्गत) ब्रह्म० ११७.१। आपस्तम्बतीर्य-(गोदावरीके अन्तर्गत)ब्रह्म० १३०।१। आत्रेयतीर्थ---(गोदावरी के उत्तरी तट पर) ब्रह्म० आमलक-(१) (उ० प्र० में स्तुतस्वामी के अन्तर्गत) १४०।१, (अत्रि का आश्रम) चित्रकूट के पश्चात्, वराह० १४८१६७; (२) (सह्य पर्वत की ब्रह्मगिरि रामायण० २१११७१०५।।
एवं वेदगिरि नामक चोटियों के मध्य में) तीर्थसार, आदर्श-बहुत से विद्वान् इसे विनशन कहते हैं। देखिए पृ०७८। 'विनशन'। काशिका (पाणिनि ४।२।१२४) ने इसे आमलक प्राम--(सह्य पर्वत पर) नारदीय० ६६१७, जनपद कहा है और यही बात बृहत्संहिता (१४।२५) (तीर्थकल्प०, पृ० २५४) । दे (पृ० ४) के अनुसार में भी कही गयी है।
यह ताम्रपर्णी के उत्तरी तट पर स्थित है। आदित्यस्य आश्रम-वनपर्व० ८३।१८४, पद्म० २२७। आमर्दक-देखिए स्कन्द० (तीर्थसार, पृ० २१-३०) । ७०।
यह शिव-क्षेत्र है और १२ ज्योतिलिगों में एक है। इस आदित्यतीर्थ-(१) (सरस्वती पर) शल्य० ४९।१७, का नाम इसलिए पड़ा है कि यहाँ पापों का मर्दन हो
देवल० (तीर्थ कल्पतरु, पृ० २५० ); (२) जाता है (आमर्देयानि पापानि तस्मादामर्दक मतम्)। (साभ्रमती नदी पर) पद्म० ६।१६७।१ (जहाँ तीर्थकल्प ० (पृ०२२) में स्कन्द० का ऐसा हवाला आया समुद्र से इसका संगम है)। .
है कि चार युगों में यह क्रम से ज्योतिर्मय,मुक्ति, स्पर्श आदित्यायतन--(नर्मदा के अन्तर्गत) मत्स्य. १९१॥ एवं नागेश्वर कहा गया है। देखिए विक्टर कज़िन्स
७७, कूर्म०२॥४१॥३७-३८, पद्म० १।१८।५ एवं ७२। कृत 'मेडिएवल टेम्पुल्स आव दि डक्कन',पृ०७७-७८, आदित्येश--(नर्मदा के अन्तर्गत) मत्स्य. १९१५। जहाँ नागनाथ के मन्दिर का वर्णन है। सम्भवतः यह
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