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धर्मशास्त्र का इतिहास
पुनः नागों एवं गुप्तों में हिन्दू धर्म जागरित हुआ, सातवीं शताब्दी में (जब ह्वेनसाँग यहाँ आया था) जहाँ बौद्ध धर्म एवं हिन्दू धर्म एक-समान पूजित थे और जहाँ पुनः ११वीं शताब्दी में ब्राह्मणवाद प्रधानता को प्राप्त हो गया।
अग्नि० (११३८-९) में एक विचित्र बात यह लिखी है कि राम की आज्ञा से भरत ने मथुरा पुरी में शैलूष के तीन कोटि पुत्रों को मार डाला। लगभग दो सहस्राब्दियों से अधिक काल तक मथुरा कृष्ण-पूजा एवं भागवत धर्म का केन्द्र रही है। वराहपुराण में मथुरा की महत्ता एवं इसके उपतीर्थों के विषय में लगभग एक सहस्र श्लोक पाये जाते हैं (अध्याय १५२-१७८)। बृहन्नारदीय० (अध्याय ७९-८०), मागवत० (१०) एवं विष्णुपुराण (५-६) में कृष्ण, राधा, मथुरा, वृन्दावन, गोवर्धन एवं कृष्णलीला के विषय में बहुत-कुछ लिखा गया है।
स्थानाभाव से मथुरा-सम्बन्धी थोड़े ही श्लोकों की चर्चा की जायगी। पद्म० (आदिखण्ड, २९।४६-४७) का कथन है कि यमुना जब मथुरा से मिल जाती है तो मोक्ष देती है; यमुना मथुरा में पुण्यफल उत्पन्न करती है और जब यह मथुरा से मिल जाती है तो विष्णु की भक्ति देती है। वराह० (१५२।८ एवं ११) में आया है--विष्णु कहते हैं कि इस पृथिवी या अन्तरिक्ष या पाताल लोक में कोई ऐसा स्थान नहीं है जो मथुरा के समान मुझे प्यारा हो--मथुरा मेरा प्रसिद्ध क्षेत्र है और मुक्तिदायक है, इससे बढ़कर मुझे कोई अन्य स्थल नहीं लगता। पद्म० में आया है-'माथुरक नाम विष्णु को अत्यन्त प्रिय हैं (४।६९।१२)। हरिवंश (विष्णुपर्व, ५७।२-३) ने मथुरा का सुन्दर वर्णन किया है, एक श्लोक यों है --'मथुरा मेध्य-देश का ककुद (अर्थात् अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थल) है, यह लक्ष्मी का निवास स्थल है, या पथिवी का शृंग है। इसके समान कोई अन्य नहीं है और यह प्रभत धन-धान्य से पूर्ण है।
मथुरा का मण्डल २० योजनों तक विस्तृत था और इसमें मथुरा पुरी बीच में स्थित थी। वराह एवं नारदीय० (उत्तरार्ध, अध्याय ७९-८०) ने मथुरा एवं इसके आसपास के तीर्थों का उल्लेख किया है। हम इनका यहाँ वर्णन उपस्थित नहीं कर सकेंगे। कुछ महत्वपूर्ण तीर्थों पर संक्षेप में लिखा जायगा। वराह० (अध्याय १५३ एवं १६१ । ६-१०) एवं नारदीय० (उत्तरार्ध, ७९।१०-१८) ने मथुरा के पास के १२. वनों की चर्चा की है, यथा-मधु, ताल, कुमुद, काम्य, बहुल, मद्र, खादिर, महावन, लोहजंघ, बिल्व, माण्डीर एवं दृन्दावन। २४ उपवन मी (ग्राउसकृत मथुरा, पृ० ७६) थे जिन्हें पुराणों ने नहीं, प्रत्युत पश्चात्कालीन ग्रन्थों ने वर्णित किया है। वृन्दावन यमुना के किनारे मथुरा के उत्तर-पश्चिम में था और विस्तार में पाँच योजन था (विष्णुपुराण ५।६।२८-४०, नारदीय०, उत्तरार्ध ८०६,८
१५. अभूत्पूर्मथुरा काचिद्रामोक्तो भरतोवधीत् । कोटित्रयं च शैलूबपुत्राणां निशितैः शरैः॥ शैलूषं दृप्तगन्धर्व सिन्धुतीरनिवासिनम् । अग्नि० (२।८-९) । विष्णुधर्मोत्तर० (१, अध्याय २०१-२०२) में आया है कि शैलूष के पुत्र गन्धर्वो ने सिन्धु के दोनों तटों की भूमि को तहस-नहस किया और राम ने अपने भाई भरत को उन्हें नष्ट करने को भेजा'जहि शैलूपतनवान् गन्धर्वान् पापनिश्चयान्' (११२०२-१०)। शैलूष का अर्थ अभिनेता भी होता है। क्या यह भरतनाट्यशास्त्र के रचयिता भरत के अनुयायियों एवं अन्य अभिनेताओं के झगड़े की ओर संकेत करता है ? नाट्यशास्त्र (१७।४७) ने नाटक के लिए शूरसेन की भाषा को अपेक्षाकृत अधिक उपयुक्त माना है। देखिए काणेकृत 'हिस्ट्री आव संस्कृतं पोइटिक्स' (पृ० ४०, सन् १९५१)।
१६. तस्मान्माथुरकं नाम विष्णोरेकान्तवल्लभम् । पद्म० (४०६९।१२); मध्यदेशस्य ककुदं धाम लक्ष्म्याश्च केवलम् । शृंगं पृथिव्याः स्वालक्ष्यं प्रभूतधनधान्यवत् ॥ हरिवंश (विष्णुपर्व, ५७।२-३)।।
१७. विशतिर्योजनानां तु माथुरं परिमण्डलम् । तन्मध्ये मथुरा नाम पुरी सर्वोत्तमोत्तमा ॥ नारदीय० (उत्तर, ७९।२०-२१)।
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