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धर्मशास्त्र का इतिहास
लाये और जो लोग वहाँ स्नान करें या मरें वे महापुण्यफल पायें।" कौरवों एवं पाण्डवों का युद्ध यहीं हुआ था । भगवद्गीता के प्रथम श्लोक में 'धर्मक्षेत्र' शब्द आया है। वायु० (७९३) एवं कूर्म० (२/२०१३३ एवं ३७।३६-३७ ) में आया है कि श्राद्ध के लिए कुरुजांगल एक योग्य देश है। सातवीं शताब्दी में ह्वेनसांग ने इस देश की चर्चा की है जिसकी राजधानी स्थाण्वीश्वर (आधुनिक थानेसर, जो कुरुक्षेत्र का केन्द्र है ) थी और जो धार्मिक पुण्य की भूमि के लिए प्रसिद्ध था ।
वनपर्व (१२९ । २२) एवं वामनपुराण (२२।१५-१६) में कुरुक्षेत्र का विस्तार पाँच योजन व्यास में कहा गया है । महाभारत एवं कुछ पुराणों में कुरुक्षेत्र की सीमाओं के विषय में एक कुछ अशुद्ध श्लोक आया है, यथा--तरन्तु एवं कारन्तुक तथा मचक्रुक ( यक्ष की प्रतिमा) एवं रामहृदों (परशुराम द्वारा बनाये गये तालाओं) के बीच की भूमि कुरुक्षेत्र, समन्तपञ्चक एवं ब्रह्मा की उत्तरी वेदी है। इसका फल यह है कि कुरुक्षेत्र कई नामों से व्यक्त हुआ है, यथा-ब्रह्मसर, रामहृद, समन्तपञ्चक, विनशन, सन्निहती ( तीर्थप्रकाश, पृ० ४६३) । कुरुक्षेत्र की सीमा के लिए देखिए कनिंघम ( आलाजिकल सर्वे रिपोर्ट्स, जिल्द १४, पृ० ८६ - १०६), जिन्होंने टिप्पणी की है कि कुरुक्षेत्र अम्बाला के दक्षिण ३० मीलों तक तथा पानीपत के उत्तर ४० मीलों तक विस्तृत है। प्राचीन काल में वैदिक लोगों की संस्कृति एवं कार्य-कलापों का केन्द्र कुरुक्षेत्र था । क्रमश: वैदिक लोग पूर्व एवं दक्षिण की ओर बढ़े और गंगा-यमुना के देश में फैल गये तथा आगे चलकर विदेह (या मिथिला) भारतीय संस्कृति का केन्द्र हो गया ।
महाभारत एवं पुराणों में वर्णित कुरुक्षेत्र की महत्ता के विषय में हम यहाँ सविस्तर नहीं लिख सकते । वन० ( ८३।१-२ ) में आया है कि कुरुक्षेत्र के सभी लोग पापमुक्त हो जाते हैं और वह भी जो सदा ऐसा कहता है--'मैं कुरुक्षेत्र को जाऊँगा और वहाँ रहूँगा ।" "इस विश्व में इससे बढ़कर कोई अन्य पुनीत स्थल नहीं है। यहाँ तक कि यहाँ की उड़ी हुई धूल के कण पापी को परम पद देते हैं।' यहाँ तक कि गंगा की भी तुलना कुरुक्षेत्र से की गयी है ( कुरुक्षेत्रसमा गंगा, वनपर्व ८५।८८ ) । नारदीय० (२१६४१२३ - २४ ) में आया है कि ग्रहों, नक्षत्रों एवं तारागणों को कालगति से (आकाश
५. यावदेतन्मया कृष्टं धर्मक्षेत्रं तदस्तु वः । स्नातानां च मृतानां च महापुण्यफलं त्विह । वामन० (२२/३३३४) । मिलाइए शल्यपर्व ( ५३।१३-१४ ) ।
६. वेदी प्रजापतेरेषा समन्तात्पञ्चयोजना । कुरोवें यज्ञशीलस्य क्षेत्रमेतन्महात्मनः ॥ वनपर्व ( १२९।२२ ) ; समाजगाम च पुनर्ब्रह्मणो वेदिमुत्तराम् । समन्तपंचकं नाम धर्मस्थानमनुत्तमम् ॥ आ समन्ताद्योजनानि पञ्च पञ्च ख सर्वतः ॥ वामन० (२२।१५-१६) । नारदीय० ( उत्तर, ६४।२० ) में आया है--' पञ्चयोजनविस्तारं दयासत्यक्षमोद्गमम् । स्यमन्तपञ्चकं तावत्कुरुक्षेत्रमुदाहृतम् ॥'
७. तरन्तुकारन्तुकयोर्यदन्तरं रामहदानां च मचकस्य । एतत्कुरुक्षेत्र समन्तपञ्चकं पितामहस्योत्तरवेदिरुच्यते ॥ वनपर्व ( ८३।२०८), शल्यपर्व (५३।२४) । पद्म० (१।२७।९२ ) ने 'तरण्डकारण्डकयो ' पाठ दिया है ( कल्पतरु, तीर्थ, पृ० १७९) । वनपर्व ( ८३।९- १५ एवं २००) में आया है कि भगवान विष्णु द्वारा नियुक्त कुरुक्षेत्र के द्वारपालों में एक द्वारपाल था मचत्रक नामक यक्ष । क्या हम प्रथम शब्द को 'तरन्तुक' एवं 'अरन्तुक' में नहीं विभाजित कर सकते ? नारदीय० (उत्तर, ६५।२४) में कुरुक्षेत्र के अन्तर्गत 'रन्तुक' नामक उपतीर्थ का उल्लेख है (तीर्थप्र०, पृ० ४६४-४६५) । नियम के मत से रत्नुक' थानेसर के पूर्व ४ मील की दूरी पर कुरुक्षेत्र के घेरे के उत्तर-पूर्व में स्थित रतन यक्ष है।
८. ततो गच्छेत राजेन्द्र कुरुक्षेत्रमभिष्टुतम् । पापेभ्यो विप्रमुच्यन्ते तद्गताः सर्वजन्तवः ॥ कुरुक्षेत्रं गमिष्यामि कुरुक्षेत्रे वसाम्यहम् । य एवं सततं ब्रूयात् सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ वनपर्व (८३।१-२ ) । टीकाकार नीलकण्ठ ने एक विचित्र
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