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धर्मशास्त्र का इतिहास
प्राप्तिकामः फल्गुतीर्थस्नानमहं करिष्ये' शब्दों के साथ गया श्राद्ध करूंगा। इसके उपरान्त उसे आवाहन एवं अध्यं कृत्यों को छोड़कर पार्वण श्राद्ध करना चाहिए। यदि यात्री श्राद्ध की सभी क्रियाएँ न कर सके तो वह केवल पिण्डदान कर सकता है । उसी दिन उसे प्रेतशिला जाना चाहिए और वहाँ निम्न रूप से श्राद्ध करना चाहिए— भूमि की शुद्धि करनी चाहिए, उस पर बैठना चाहिए, आचमन करना चाहिए, दक्षिणाभिमुख होना चाहिए, अपसव्य रूप से जनेऊ धारण करना चाहिए, श्लोकोच्चारण ( वायु० ११०।१०-१२ 'कव्यवालो...श्राद्धेनानेन शाश्वतीम् ' ) करना चाहिए । पितरों का ध्यान करना चाहिए, प्राणायाम करना चाहिए, पुण्डरीकाक्ष का स्मरण कर श्राद्ध-सामग्री पर जल छिड़कना चाहिए और संकल्प करना चाहिए । तब ब्राह्मणों को दक्षिणा देने तक के सारे श्राद्ध कृत्य करने चाहिए; श्राद्धवेदी के दक्षिण बैठना चाहिए, अपसव्य रूप में जनेऊ धारण करना चाहिए, दक्षिणाभिमुख होना चाहिए, भूमि पर तीन कुशों को रखना चाहिए, मन्त्रोच्चारण (वायु० ११० १०-१२ ) करके तिलयुक्त अंजलि-जल से एक बार आवाहन करना चाहिए, तब पिता को पाद्य (पैर धोने के जल) से सम्मानित करना चाहिए और दो श्लोकों (वायु० ११०/२०, २१ 'ओम्' के साथ 'आ ब्रह्म..तिलोदकम') का उच्चारण करना चाहिए, अंजलि में जल लेकर पिता आदि का आवाहन करना चाहिए और 'ओम् अद्य अमुकगोत्र पितरमुकदेवशर्मन एष ते पिण्डः स्वधा' के साथ पायस या तिल, जल, मधु से मिश्रित किसी अन्य पदार्थ का पिण्ड अपने पिता को देना चाहिए। इसी प्रकार उसे शेष ११ देवताओं ( पितामह आदि ८ या ५ जैसा कि लोकाचार हो) को पिण्ड देना चाहिए। उसे अपनी योग्यता के अनुसार दक्षिणा देनी चाहिए। तब उसे जहाँ वह अब तक बैठा था, उसके दक्षिण बैठना चाहिए, भूमि पर जड़सहित कुश (जिनके अग्र भाग दक्षिण रहते हैं) रखने चाहिए, मन्त्रोच्चारण ( वायु० ११० १० -१२) करना चाहिए, तिलांजलि से आवाहन करना चाहिए, दो श्लोकों (वायु० ११०।२२-२३ ) का पाठ करना चाहिए, तिल, कुशों, घृत, दधि, जल एवं मघु से युक्त जौ के आटे का एक पिण्ड सभी १२ देवताओं ( पितरों) को देना चाहिए। इसके उपरान्त षोडशीकर्म किया जाता है, जो निम्न है। एक-दूसरे के दक्षिण १९ स्थल ( पिण्डों के लिए) बनाये जाते हैं और एक के पश्चात् एक पर पञ्चगव्य छिड़का जाता है, इसके पश्चात् प्रत्येक स्थल पर अग्र भाग को दक्षिण करके कुश रखे जाते हैं और कुशों पर इच्छित व्यक्तियों का मन्त्रों (वायु० ११०।३०-३२ ) के साथ आवाहन किया जाता है और उनकी पूजा चन्दनादि से की जाती है। जब षोडषीकर्म किसी देव-स्थल पर किया जाता है तो देव-पूजा भी होती है, तिलयुक्त अंजलि-जल दिया जाता है और प्रथम स्थल से आरम्भ कर पिण्ड रखे जाते हैं। यह पिण्डदान अपसव्य रूप में किया जाता है । रघुनन्दन का कथन है कि यद्यपि १९ पिण्ड दिये जाते हैं तब भी पारिभाषिक रूप में इसे श्राद्धषोडशी कहा जाता है। यह ज्ञातव्य है कि पुरुषों के लिए मन्त्रों में 'ये', 'ते' एवं 'तेभ्यः' का प्रयोग होता है, अतः यह 'पुं षोडशी' है। स्त्रीलिंग शब्दों का प्रयोग करके यह स्त्री-षोडशी' भी हो जाती है (वायु० ११०/५६; त्रिस्थली०, पृ० ३५७; तीर्थचि०, पृ० २९२ ) । तिलयुक्त जल से पूर्ण पात्र द्वारा तीन बार पिण्डों पर जल छिड़का जाता है । मन्त्रपाठ (तीर्थचि ० पृ० २९३ एवं तीर्थयात्रातत्त्व पृ० १०-११ ) भी किया जाता है। इसके उपरान्त कर्ता को पृथिवी पर झुककर बुलाये गये देवों (पितरों) को चले जाने के लिए कहना चाहिए; "हे पिता एवं अन्य लोगों, आप मुझे क्षमा करें" कहना चाहिए। इसके उपरान्त उसे जनेऊ को नव्य रूप में धारण करके आचमन करना चाहिए और पूर्वाभिमुख हो दो मन्त्रों (वायु० ११०। ५९-६०, 'साक्षिणः सन्तु' एवं 'आगतोस्मि गयाम') का उच्चारण करना चाहिए। यदि व्यक्ति इस विस्तृत पद्धति को
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४२. ऊनविंशती षोडशत्वं पारिभाषिकं पञ्चाभ्रवत् । तीर्थयात्रात स्व ( पृ० ८ ) । जब कोई किसी से पूछता है कि उसके पास कितने आन-वृक्ष या फल हैं तो उत्तर यह दिया जा सकता है कि 'पाँच', भलें ही ६ या ७ की संख्या हो ।
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