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वायुपुराण का गया-माहात्म्य
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तिल का पिण्ड दे सकता है। गया में श्राद्ध करने से सभी महापातक नष्ट हो जाते हैं। गया में पुत्र या किसी अन्य द्वारा नाम एवं गोत्र के साथ पिण्ड पाने से शाश्वत ब्रह्म की प्राप्ति होती है। मोक्ष चार प्रकार का होता है (अर्थात् मोक्ष की उत्पत्ति चार प्रकार से होती है)--ब्रह्माज्ञान से, गयाश्राद्ध से, गौओं को भगाये जाने पर उन्हें बचाने में मरण से तथा कुरुक्षेत्र में निवास करने से, किन्तु गयाश्राद्ध का प्रकार सबसे श्रेष्ठ है। गया में श्राद्ध किसी समय भी किया जा सकता है। अधिक मास में भी, अपनी जन्म-तिथि पर भी, जब बृहस्पति एवं शुक्र न दिखाई पड़ें तब भी या जब बृहस्पति सिंह राशि में हों तब भी ब्रह्मा द्वारा प्रतिष्ठापित ब्राह्मणों को गया में सम्मान देना चाहिए। कुरुक्षेत्र, विशाला, विरजा एवं गया को छोड़कर सभी तीर्थों में मुण्डन एवं उपवास करना चाहिए। संन्यासी को गया में पिण्डदान नहीं करना चाहिए। उसे केवल अपने दण्ड का प्रदर्शन करना चाहिए और उसे विष्णुपद पर रखना चाहिए। सम्पूर्ण गया क्षेत्र पाँच कोसों में है। गयाशिर एक कोस में है और तीनों लोकों के सभी तीर्थ इन दोनों में केन्द्रित हैं।" गया में पितृ-पिण्ड निम्न वस्तुओं से दिया जा सकता है; पायस (दूध में पकाया हुआ चावल), पका चावल, जौ का आटा, फल, कन्दमूल, तिल की खली, मिठाई, घृत या दही या मधु से मिश्रित गुड़। गयाश्राद्ध में जो विधि है वह है पिण्डासन बनाना, पिण्डदान करना, कुश पर पुनः जल छिड़कना, (ब्राह्मणों को) दक्षिगा देना एवं भोजन देने की घोषणा या संकल्प करना; किन्तु पितरों का आवाहन नहीं होता, दिग्बन्ध (दिशाओं से कृत्य की रक्षा) नहीं होता और न (अयोग्य व्यक्तियों एवं पशुओं से) देखे जाने पर दोष ही लगता है ।१६ जो लोग (गया जैसे) तीर्थ पर किये गये श्राद्ध से उत्पन्न पूर्ण फल भोगना चाहते हैं उन्हें विषयाभिलाषा, क्रोध, लोभ छोड़ देना चाहिए,ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए, केवल एक बार खाना चाहिए, पृथिवी पर सोना चाहिए,सत्य बोलना चाहिए, शुद्ध रहना चाहिए और सभी जीवों के कल्याण के लिए तत्पर रहना चाहिए । प्रसिद्ध नदी वैतरणी गया में आयी है, जो व्यक्ति इसमें स्नान करता है और गोदान करता है वह अपने
११. आत्मजोवान्यजो वापि गयाभूमौ यदा यदा। यन्नाम्ना पातयेत्पिण्डं तन्नयेद् ब्रह्म शाश्वतम् ॥ नामगोत्रे समुच्चार्य पिण्डपातनमिष्यते। (वाय ० १०५।१४-१५); आधा पाद 'यन्नाम्ना... शाश्वतम्' अग्नि० (११६।२९) में भी आया है।
१२. ब्रह्मज्ञानं गयाश्राद्धं गोग्रहे मरणं तथा। वासः पुंसां कुरुक्षेत्रे मुक्तिरेषा चतुर्विधा ॥ ब्रह्मज्ञानेन कि कार्य ... यदि पुत्रो गयां बजेत ॥ गयायां सर्वकालेषु पिण्डं दद्याद्विचक्षणः । वायु० (१०५।१६-१८)। मिलाइए अग्नि० (११५॥ ८) 'न कालादि गयातीर्थे वद्यापिण्डांश्च नित्यशः।' और देखिए नारदीय० (उत्तर, ४४।२०), अग्नि० (११५॥३-४ एवं ५-६) एवं वामनपुराण (३३३८)।
१३. मुण्डनं चोपवासश्च ... बिरजां गयाम् ॥ वायु० (१०५।२५)।
१४. वण्ड प्रदर्शये भिक्षुर्गयां गत्वा न पिण्डदः । दण्डं न्यस्य विष्णुपदे पितृभिः सह मुच्यते॥ वायु० (१०५।२६), नारदीय० (२०४५।३१) एवं तीर्यप्रकाश (4०३९०)।
१५. पंचक्रोशं गयाक्षेत्र कोशमेकं गयाशिरः। तन्मध्ये सर्वतीर्थानि त्रैलोक्ये यानि सन्ति वै ॥वायु०(१०५।२९. ३० एवं १०६।६५३; त्रिस्थली०, पृ० ३३५; तीर्थप्र०, पृ० ३९१)। और देखिए अग्नि० (११५।४२) एवं नारदीय० (उत्तर, ४४।१६)। प्रसिय तीर्थों के लिए पांच कोसों का विस्तार मानना एक नियम-सा हो गया है।
१६. पिण्डासनं पिण्डदानं पुनः प्रत्यवनेजनम् । दक्षिणा चान्नसंकल्पस्तीर्यश्राद्धेष्वयं विधिः॥ नावाहनं न दिग्बन्धो न दोषो दृष्टिसम्भवः।... अन्यत्रावाहिताः काले पितरो यान्त्यमुंप्रति । तीर्थे सदा वसन्त्येते तस्मादावहनं न हि ॥ वायु (१०५।३७-३९)। 'नावाहनं ... विधिः' फिर से दुहराया गया है (वायु० ११०।२८-२९) ।
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