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धर्मशास्त्र का इतिहास पिशाच नहीं है, प्रत्युत एक भक्त वैष्णव है (बोधगया, पृ० १५-१६) । गयासुर की गाथा विलक्षण नहीं है। पुराणों में ऐसी गाथाएँ हैं जो आधुनिक लोगों को व्यर्थ एवं कल्पित लगेंगी। प्रह्लाद, बाण (शिव का भक्त) एवं बलि (जो श्रेष्ठ राजा एवं विष्णु-भक्त था) ऐसे असुर थे, जो राक्षस या पिशाच के व्यवहार से दूर भक्त व्यक्ति थे, किन्तु उन्होंने देवों से युद्ध अवश्य किया था। उदाहरणार्थ कूर्म० (१।१६।५९-६० एवं ९१-९२) में वर्णन आया है कि प्रह्लाद ने नृसिंह से युद्ध किया था; पम० (भूमिखण्ड, ११८) में आया है कि उसने सर्वप्रथम विष्णु से युद्ध किया और वैष्णवी तनु में प्रवेश किया (इस पुराण ने उसे महाभागवत कहा है); वामन० (अध्याय ७-८) ने उसके नर-नारायण के साथ हुए युद्ध का उल्लेख किया है। पालि ग्रन्थों (अंगुत्तरनिकाय, भाग ४,पृ० १९७-२०४) में वह पहाराद एवं असुरिन्द (असुरेन्द्र) कहा गया है। बलि के विषय में, जो प्रह्लाद का पौत्र था, अच्छा राजा एवं विष्णुभक्त था, देखिए ब्रह्मपुराण (अध्याय ७३) कूर्म० (१११७), वामन० (अध्याय ७७ एवं ९२) । बलि के पुत्र बाण द्वारा शिव की सहायता से कृष्ण के साथ युद्ध किये जाने के लिए देखिए ब्रह्म० (अध्याय २०५-२०६) एवं विष्णपुराण (५।३३१३७-३८)।
डाराजेन्द्रलाल मित्र (बोधगया, पृ० १४-१८) का कथन है कि गयासुर की गाथा बौद्धधर्म के ऊपर ब्राह्मणवाद की विजय का रूपक है। ओं' मैली (जे० ए० एस० बी०, १९०४ ई०, भाग ३, पृ०७) के मत से गयासुर की गाथा ब्राह्मणवाद के पूर्व के उस समझौते को सूचक है जो ब्राह्मणवाद एवं भूतपिशाच-पूजावाद के बीच हुआ था। डा. बरुआ ने इन दोनों मतों का खण्डन किया है। उनका कथन है (भाग १, पृ० ४०-४१) कि इस गाथा का अन्तहित भाव यह है कि लोग फल्गु के पश्चिमी तट के पर्वतों को पवित्र समझें। उन्होंने मत प्रकाशित किया है कि बौद्धधर्म में गया की चर्चा नहीं होती, गय या नमुचि या वृत्र अन्धकार का राक्षस एवं इन्द्र का शत्रु कहा गया है और त्रिविक्रम नामक वैदिक शब्द को और्णवाभ कृत व्याख्या में गयासुर की गाथा का मूल पाया जाता है। स्थानाभाव से हम इन सिद्धांतों की चर्चा नहीं करेंगे। ऐसा कहा जा सकता है कि ईसा की कई शताब्दियों पूर्व गया एक प्रसिद्ध पितृ-तीर्थ हो चुका था और गयासुर की गाथा केवल गया एवं उसके आस-पास के कालान्तर में उत्पन्न पवित्र स्थलों की पुनीतता को प्रकट करने का उत्तरकालीन प्रयास मात्र है।
१०९वें अध्याय में इसका वर्णन हआ है कि किस प्रकार आदि-गदाधर व्यक्त एवं अव्यक्त रूप में प्रकट हुए। उनकी गदा कैसे उत्पन्न हुई और किस प्रकार गदालोल तीर्थ सभी पापों को नाश करने वाला हुआ। गद नामक एक शक्तिशाली असुर था, जिसने ब्रह्मा की प्रार्थना पर अपनी अस्थियाँ उन्हें दे दी। ब्रह्मा को इच्छा से विश्वकर्मा ने उन अस्थियों से एक अलौकिक गदा बना दी। स्वायंभुव मनु के समय में ब्रह्मा के पुत्र हेति नामक असुर ने सहस्रों दैवी वर्षों तक कठिन तप किया। उसे ब्रह्मा एवं अन्य देवों द्वारा ऐसा वर प्राप्त हुआ कि वह देवों, दैत्यों मनुष्यों या कृष्ण के चक्र आदि शस्त्रों द्वारा मारा नहीं जा सकता। हेति ने देवों को जीत लिया और इन्द्र हो गया। हेति दैत्य की गाथा अग्नि० (११४।२६-२७) एवं नारदीय० (उत्तर, ४७१९-११) में भी आयी है। हरि को आदि गदाधर इसलिए कहा जाता है कि उन्होंने उस गदा को सर्वप्रथम धारण किया, गदा के सहारे गयासुर के सिर पर रखी हुई शिला पर खड़े हुए और गयासुर के सिर को स्थिर कर दिया। वे अपने को मुण्डपृष्ट, प्रभास एवं अन्य पर्वतों के रूप में प्रकट करते
१९. यह नहीं स्पष्ट हो पाता कि डा० बरुआ को यह सूचना कहाँ से मिली कि गय वेद में वृत्र-जैसे राक्षस के समान है। ऋग्वेद में कम-से-कम वृत्र के समान गय कोई राक्षस नहीं है।
२०. वायुपुराण (१०५।६०) में आदि-गदाधर के नाम के विषय में कहा गया है--'आचया गदया भीतो यस्माद् दैत्यः स्थिरीकृतः । स्थित इत्येष हरिणा तस्मादादिगदाधरः॥' देखिए त्रिस्थलोसेतु (१.० ३३८)। ऐसी ही व्युत्पत्ति वायु० (१०९।१३) में पुनः आयी है।
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