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गया के धार्मिक कृत्य एवं तीर्थयात्रा
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एवं मधु से मिश्रित पिण्ड पितरों (पिता, पितामह आदि) को देना चाहिए ( वायु० ११०।२३-२४) । इसके उपरान्त यात्री को विविध रूपों से संबधित लोगों के लिए कुशों पर जल, तिल एवं पिण्ड देना चाहिए ( वायु ० ११०।३४-३५ ) । तब उसे गया आने की साक्षी के लिए देवों का आह्वान करना चाहिए और पितृ ऋण से मुक्त होना चाहिए (वायु० ११०।५९-६०)। वायुपुराण ( ११०।६१ ) में ऐसा आया है कि गया के सभी पवित्र स्थलों पर प्रेतपर्वत पर किये गये पिण्डकर्म के समान ही कृत्य करने चाहिए (सर्वस्थानेषु चैवं स्यात् पिण्डदानं तु नारद । प्रेतपर्वतमारभ्य कुर्यात्तीर्थेषु च क्रमात् ॥ ) ।
तीसरे दिन पञ्चतीर्थी कृत्य करना चाहिए ( वायु० १११।१) । २५ सर्वप्रथम यात्री उत्तर मानस में स्नान करता है, देवों का तर्पण करता है और पितरों को मन्त्रों के साथ ( वायु ० ११०।२१-२४) जल एवं श्राद्ध के पिण्ड देता है । इसका फल पितरों के लिए अक्षय होता है। इसके उपरान्त यात्री दक्षिण मानस की ओर तीन तीर्थों में जाता है, यथा उदीचीतीर्थ (उत्तर में ), कनखल (मध्य में ) एवं दक्षिण मानस (दक्षिण में)। इन तीनों तीर्थों में श्राद्ध किया जाता है। इसके उपरान्त यात्री फल्गुतीर्थ को जाता है जो गयातीर्थों में सर्वोत्तम है। यात्री फल्गु में पिण्डों के साथ श्राद्ध एवं तर्पण करता है। फल्गु-श्राद्ध से कर्ता एवं वे लोग, जिनके लिए कर्ता श्राद्ध करता है, मुक्ति पा जाते हैं ( मुक्तिर्भवति कर्तॄणां पितॄणां श्राद्धतः सदा, वायु ० ११०।१३ ) ऐसा कहा गया है कि फल्गु जलधारा के रूप में आदिगदाघर है । " फल्गुस्नान से व्यक्ति अपनी, दस पितरों एवं दस वंशजों की रक्षा करता है। इसके उपरान्त यात्री वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, विष्णु एवं श्रीधर को प्रणाम करके गदाधर को पंचामृत से स्नान कराता है। " पंचतीर्थी कृत्य के दूसरे दिन ( अर्थात् गयाप्रवेश के चौथे दिन ) यात्री को धर्मारण्य जाना चाहिए, जहाँ पर धर्म ने यज्ञ किया था। वहाँ उसे मतंगवापी में (जो धर्मारण्य में ही अवस्थित है ) स्नान करना चाहिए। इसके उपरान्त उसे ब्रह्मतीर्थ नामक कूप पर तर्पण, श्राद्ध एवं पिण्डदान करना चाहिए। ऐसा ही ब्रह्मतीर्थ एवं ब्रह्मयूप के बीच भी करना चाहिए और तब ब्रह्मा एवं धर्मेश्वर को नमस्कार करना चाहिए। " यात्री को महाबोधि वृक्ष ( पवित्र पीपल वृक्ष ) को प्रणाम कर उसके नीचे श्राद्ध
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२४. प्रेतपर्वत एवं ब्रह्मकुण्ड के विषय में त्रिस्थलोसेतु ( पृ० ३५५ ) यों कहता है--'प्रेतपर्वतो गयावायव्यविशि यातो गव्यूत्यधिकद्दूरस्थ: । ब्रह्मकुण्डे प्रेतपर्वतमूल ईशानभागे ।'
२५. पाँच तीर्थ ये हैं-उत्तर मानस, उदीचीतीर्थ, कनखल, दक्षिण मानस एवं फल्गु । त्रिस्थली ० ( १० ३६० ) का कथन है कि एक ही दिन इन सभी तीर्थों में स्थान नहीं करना चाहिए । वायु० (१११।१२) में आया है कि फल्गुतीर्थं गयाशिर ही है-'नागकूटाद् गृध्रकूटापादुत्तरमानसात् । एतद् गयाशिरः प्रोक्तं फल्गुतीर्थं तदुच्यते । किन्तु अग्नि० ( ११५/२५-२६) में अन्तर है--'नागाज्जनार्दनात्कूपाद्वटाच्चोत्तरमानसात् । एत... च्यते ॥' गरुड़पुराण (११८३/४ ) में ऐसा है - 'नागाज्जना० तदुच्यते ॥' त्रिस्थली० (१० ३५९ ) ने यों पढ़ा है - 'मुण्डपुष्ठान्नगाधस्तात्फल्गुतीर्थ
मनुत मम् ।'
२६. गंगा पादोदकं विष्णोः फल्गुह्यदिगदाधरः । स्वयं हिद्रवरूपेण तस्माद् गंगाधिकं विदुः ॥ वायु ० ( १११ ।
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२७. पञ्चामृत में दुग्ध, दधि, घृत, मधु एवं शक्कर होते हैं और इन्हीं से गदाधर को स्नान कराया जाता है । देखिए नारदीय० ( उत्तर, ४३।५३ ) - पञ्चामृतेन च स्नानमर्चायां तु विशिष्यते ।'
२८. डा० बरुआ ( गया एवं बुद्ध - गया, भाग १, पृ० २२) का कथन है कि 'धर्म' एवं 'धर्मेश्वर' बुद्ध के द्योतक हैं, किन्तु ओ' मैलो का कहना है कि 'धर्म' का संकेत 'यम' की ओर है। 'सम्भवतः ओ' मैली की बात ठीक है। पद्म ० ( सृष्टिखण्ड, ११।७३ ) का कथन है कि पिण्डदान के लिए तीन अरण्य (वन) हैं—पुष्करारण्य, नैमिषारण्य एवं धर्मारण्य ।
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