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गयासुर की देह पर देवताओं का निवास
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हैं। ये पर्वत एवं अक्षयवट, फल्ग एवं अन्य नदियाँ आदि-गदाधर के अव्यक्त रूप हैं। विष्णुपद, रुद्रपद, ब्रह्मपद एवं अन्य पद गदाधर के अव्यक्त एवं व्यक्त रूप हैं।" गदाधर की मूर्ति विशुद्ध व्यक्त रूप है। असुर हेति विष्णु द्वारा मारा गया और विष्णुलोक चला गया। जब गयासुर का शरीर स्थिर हो गया तो ब्रह्मा ने विष्णु की स्तुति की और विष्णु ने उनसे वर मांगने को कहा। ब्रह्मा ने कहा---'हम (देवगण) लोग आपके बिना शिला में नहीं रहेंगे, यदि आप व्यक्त रूप में रहें तो हम उसमें आप के साथ रहेंगे।' विष्ण ने 'तथास्तु' कहा और वे गयाशिर में आदि-गदाधर के रूप में और जनार्दन एवं पुण्डरीकाक्ष के रूप में खड़े हो गये। शिव ने भी विष्णु की स्तुति की (वायु० १०९।४३-५०) । वायु० (१०९।२० एवं ४३-४५) ने कई स्थानों पर देवता के व्यक्ताव्यक्त प्रतीकों का उल्लेख किया है। इसका तात्पर्य यह
२१. हम यहाँ पर प्रमुख नदियों, पर्वतों एवं पदों का उल्लेख करते हैं। जब तक विशिष्ट निर्देश न किया जाय तब तक यहां पर कोष्ठ में दिये गये अध्यायों एवं श्लोकों को वायुपुराण का समझना चाहिए। पुनीत नदियाँ ये हैं-फल्गु (जिसे महानदी भी कहा गया है, अग्नि० ११५।२५), घृतकुल्या, मधुकुल्या (ये दोनों वाय० १०९।१७ में हैं), मधुस्रवा (१०६।७५), अग्निपारा (उद्यन्त पर्वत से, १०८१५९), कपिला (१०८१५८), वैतरणी (१०५।४४ एवं १०९।१७), देविका (११२१३०), आकाशगंगा (अग्नि०११६१५)। इनमें कुछ केवल नाले या धाराएँ मात्र हैं। पुनीत पर्वत एवं शिखर ये हैं-याशिर (१०९।३६, अग्नि० ११५।२६ एवं ४४), मुण्डपृष्ठ (१०८११२, १०९।१४), प्रभास (१०८।१३ एवं १६, १०९।१४), उद्यन्त (वनपर्व ८४१९३, वायु० १०८१५९, १०९।१५), भस्मकूट (१०९।१५), अरविन्दक (१०९।१५), नागकूट (१११।२२, अग्नि० ११५।२५), गृध्रकूट (१०९।१५), प्रेतकूट (१०९।१५), आविपाल (१०९।१५), कौञ्चपाद (१०९।१६),रामशिला, प्रेतशिला (११०।१५,१०८।६७), नग (१०८।२८) ब्राह्मयोनि (नारदीय० २।४७१५४) प्रमुख स्नान-स्थल ये हैं--फल्गुतीर्थ,(१११।१३, अग्नि० ११५।२५-२६एवं ४४), रामतीर्थ (१०८।१६।१८), शिलातीर्य (१०८०२), गदालोल (११११७५-७६, अग्नि० ११५।६९), वैतरणी (१०५।४४), ब्रह्मसर (वनपर्व, ८४१८५, वायु० ११११३०), ब्रह्मकुण्ड (११०३८), उत्तर मानस (११११२ एवं २२), दक्षिण मानस (१११६ एवं ८), रुक्मिणीकुण्ड, प्रेतकुण्ड, निःक्षारा (नि.क्षीरा) पुष्करिणी (१०८३८४), मतंगवापी (१११॥ २४)। पुनीत स्थल ये हैं--पञ्चलोक, सप्तलोक, वैकुण्ठ, लोहदण्डक (सभी चार १०९।१६), गोप्रचार (१११॥ ३५-३७, जहाँ ब्रह्मा द्वारा स्थापित आमों के वृक्ष हैं), धर्मारण्य (१११।२३), ब्रह्मयूप (अग्नि० ११५।३९ एवं वनपर्व ८४१८६)। पुनीत वृक्ष ये हैं-अक्षयवट (वनपर्व ८४१८३, ९५।१४, वायु० १०५।४५, ११११७९-८१३, अग्नि० ११५। ७०-७३), गोप्रचार के पास आम्र (१११।३५-३७), गृध्रकूटवट (१०८।६३), महाबोधितरु (११११२६-२७, अग्नि० ११५।३७) । आम्र वृक्ष के विषय में यह श्लोक विख्यात है--'एको मुनिः कुम्भकुशाग्रहस्त आम्रस्य मूले सलिलं ददानः। आम्रश्च सिक्तः पितरश्च तृप्ता एका क्रिया द्वधर्यकरी प्रसिद्धा॥' (वायु०११११३७, अग्नि० ११५।४०, नारदीय०, उत्तर, ४६७, पप० सष्टिखण्ड, ११७७)। बहुत-से अन्य तीर्थ भी हैं, यथा--फलावीश, फल्गुचण्डी, अंगारकेश्वर (सभी अग्नि. ११६।२९) जो यहाँ वणित नहीं हैं। पद (ऐसी शिलाएँ जिन पर पदचिह्न हैं) ये हैं--वायु०(१११॥ ४६-५८) ने १६ के नाम लिये हैं और अन्यों की ओर सामान्यतः संकेत किया है। अग्नि० (११५।४८-५३) ने कम-सेकम १३ के नाम लिये हैं। वायु द्वारा उल्लिखित नाम ये हैं--विष्णु, रुद्र, ब्रह्म, कश्यप, दक्षिणाग्नि, गार्हपत्य, आहवनीय, सभ्य, आवसष्य, शक, अगस्त्य, क्रौञ्च, मातंग, सूर्य, कार्तिकेय एवं गणेश । इनमें चार अति महान् हैं-काश्यप, विष्णु, रुद्र एवं ब्रह्मा (वायु० ११११५६)। नारदीय० (उत्तर, ४६।२७) का कथन है कि विष्णुपद एवं रुद्रपद उत्तम हैं, किन्तु ब्रह्मपद सर्वोत्तम है।
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