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धर्मशास्त्र का इतिहास
अब हमें यह देखना आवश्यक है कि आजकल पार्वण श्राद्ध किस प्रकार किया जाता है। आधुनिक काल में इसके कई प्रकार हैं। भारत के विभिन्न भागों में इसके विस्तार में भिन्नता पायी जाती है। इस प्रकार की भिन्नता के कई कारण हैं; कर्ता किसी वेद या किसी वेद-शाखा का अनुयायी हो सकता है, किसी प्रसिद्ध लेखक को मान्यता दी जा सकती है, कर्ता वैष्णव है या शैव, क्योंकि इसके अनुसार भी बहुत-सी बातें जुड़ गयी हैं। हम इन विभिन्नताओं की चर्चा नहीं करेंगे, क्योंकि वे महत्त्वपूर्ण नहीं हैं । हमने ऊपर देख लिया है कि ब्राह्मण-ग्रन्थों एवं सूत्रों के काल में पार्वण श्राद्ध बहुत सरल था । उन दिनों पार्वण श्राद्ध में विश्वेदेवों की पूजा के विषय में या मातृपक्ष के पूर्व-पुरुषों या पितरों की पत्नियों के विषय में स्पष्ट उल्लेख नहीं है। किन्तु कालान्तर में इनकी परिगणना हो गयी और याज्ञवल्क्यस्मृति के काल में विश्वेदेवों के लिए एक विशिष्ट आवाहन की प्रथा बँध गयी। किन्तु ये सब इस स्मृति के समय तक कई कोटियों में नहीं विभाजित हो सके थे। स्मृति-काल में विभिन्न श्राद्धों के लिए विभिन्न विश्वेदेवों की कोटियाँ प्रतिष्ठापित हो गयीं । श्राद्ध कृत्य के लिए पुराणों ने कतिपय पौराणिक मन्त्रों की निर्धारणा कर दी, यथा- 'आगच्छन्तु' एवं 'देवताभ्यः पितृभ्यश्च । और भी, आगे चलकर पूर्वमीमांसा का सिद्धान्त भी प्रतिपादित हो गया कि विभिन्न शाखाओं एवं सूत्रों में वर्णित सभी कृत्य एक ही हैं और किसी भी शाखा या सूत्र से कुछ भी लिया जा सकता है, यदि वह अपनी शाखा या सूत्र के विरोध में नहीं पड़ता है। इस सिद्धान्त का परिणाम यह हुआ कि श्राद्ध - कृत्यों में सभी कुछ सम्मिलित-सा हो गया और सम्पूर्ण विधि विशद हो गयी। एक साधारण परिवर्तन से क्या अन्तर उत्पन्न हो सकता है, इसे हम एक उदाहरण से समझ सकते हैं। मिथिला में पार्वण श्राद्ध के लिए दरिद्र लोग भी ( गाँवों में ) ११ ब्राह्मणों को आमन्त्रित करते हैं, किन्तु एक विद्वान् ब्राह्मण का मिलना, जिसे पात्र या महापात्र कहा जाता है, दुष्कर हो जाया करता है । ऐसी स्थिति में, जब कि महापात्र या पात्र ब्राह्मण नहीं मिलता, श्राद्ध को अपात्रक - पार्वण श्राद्ध (जिसके लिए कोई शास्त्रीय प्रमाण नहीं है) कहा जाता है । वह श्राद्ध सपात्रक - पार्वण श्राद्ध से कतिपय ऐसी बातों में भिन्न कहा जाता है, जिनमें दो (वाजसनेयी लोगों के विषय में) यहाँ दी जा रही हैं। यद्यपि कात्यायन के श्राद्धसूत्र ने (कण्डिका ३ के अन्त में), जो वाजसनेयियों में प्रामाणिक माना जाता है, उद्घोषित किया है कि श्राद्ध के अन्त में 'वाजे वाजे' (वाज ० सं ० ९।१८ ) के साथ ब्राह्मणों को विदा देनी चाहिए और कर्ता को 'आ मा वाजस्य' (वाज० सं० ९।१९) मन्त्र के साथ ब्राह्मणों की प्रदक्षिणा करनी चाहिए, किन्तु आजकल मिथिला के शिष्ट लोग, जैसा कि 'श्राद्धरत्न' के सम्पादक ने लिखा है, अपात्रक-पार्वण श्राद्ध में इन नियमों का पालन नहीं करते । रुद्रधर के श्राद्धविवेक ( पृ० १३८ - १४६) में अपात्रक - पार्वणश्राद्ध प्रयोग पर विस्तार के साथ लिखा हुआ है।
मध्य एवं आधुनिक काल में भारत के विभिन्न प्रान्तों में विभिन्न वेदों के अनुयायियों द्वारा विभिन्न पद्धतियाँ अपनायी जाती रही हैं। उदाहरणार्थ, बंगाल के सामवेदियों, यजुर्वेदियों एवं ऋग्वेदियों द्वारा क्रम से भवदेव, पशुपति एवं कालेसि की पार्वणश्राद्ध-सम्बन्धी पद्धतियाँ अपनायी जाती हैं और कुछ लोग रघुनन्दन के 'श्राद्धतत्त्व' एवं 'यजुर्वेदिश्राद्धतत्त्व' में व्यवस्थित नियमों का अनुसरण करते हैं। मिथिला में, श्रीदत्त ने यजुर्वेदियों के लिए पितृभक्ति एवं सामवेदियों के लिए श्राद्धकल्प नामक ग्रन्थ लिखे, और महामहोपाध्याय लक्ष्मीपति ( १५०० से १६४० ई० के बीच) के श्राद्धरत्न में, जो दरभंगा में मुद्रित हुआ है और मैथिलों के लिए परम्परागत पद्धति के रूप में ( मैथिल साम्प्रदायिक श्राद्धपद्धति) विख्यात है, लिखा है कि इसने छन्दोगों के लिए एवं वाजसनेयियों के लिए प्रणीत प्रतिहस्तककृत सुगतिसोपान का अनुसरण किया है। मद्रास या दक्षिण भारत में वैष्णव ब्राह्मण वैदिक-सार्वभौम या तोलप्पर के हारीत वेंकटाचार्य की पूर्व एवं अपर क्रिया का अनुसरण करते हैं, और स्मार्त ब्राह्मण लोग वैद्यनाथ के स्मृतिमुक्ताफल का, जो बहुत सी बातों में वैदिक सार्वभौम से भिन्न नहीं है, अनुसरण करते हैं । यहाँ इन सभी पद्धतियों का सांगोपांग निरूपण, मिलान एवं विरोध-प्रदर्शन नहीं किया जायगा । पश्चिम भारत के ऋग्वेदियों में प्रतिसांवत्सरिक श्राद्ध प्रसिद्ध
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