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प्रयाग के तीर्थ एवं श्राविधि; माघस्नान-महिमा
१३३७ से कतिपय श्लोक उद्धृत किये हैं, जिनका सारांश निम्न है--तीर्थों पर श्राद्ध करना चाहिए, किन्तु वहाँ अर्घ्य एवं आवाहन (क्योंकि वहां पितर लोग रहते ही हैं, जैसा कि काशीखण्ड में कहा है) नहीं किये जाते, आमन्त्रित ब्राह्मण के अंगूठे को परोसे हुए भोजन से छुवाया नहीं जाता और न वहाँ ब्राह्मणों की सन्तुष्टि एवं विकिर का ही प्रश्न उठता है। यदि वहाँ श्राद्ध की विधि का भली भाँति पालन न किया जा सके तो केवल यव-अन्न का पिण्डदान पर्याप्त है या केवल संयाव (घत एवं दूध में बनी हई गेहूँ की लपसी), खीर (चरु, दूध में उबाला हआ चावल). तिल की खली या गड का अर्पण किया जा सकता है। इसे कुत्तों, कौओं, गृद्धों को दृष्टि से बचाना चाहिए। तीर्थ पर पहुँचने के उपरान्त यह कभी भी किया जा सकता है। तीर्थ पर सम्पादित श्राद्ध से पितरों को बहुत तृप्ति मिलती है। त्रिस्थलीसेतुसारसंग्रह के लेखक भट्रोजि और अन्य लेखकों ने कहा है कि तीर्थ पर पितरों के लिए पार्वणश्राद्ध करने एवं पिण्डदान करने के पश्चात व्यक्ति को अपने अन्य सम्बन्धियों के लिए निम्न मंत्र के साथ केवल एक पिण्ड देना चाहिए--'यहाँ मैं अपने पिता के कुल के मृत सदस्यों को पिण्ड दे रहा हूँ, अपनी माता के कुल के एवं गुरु के मृत सम्बन्धियों को भी पिण्ड दे रहा हैं और अपने कूल के उन लोगों को भी जो पूत्रों एवं पत्नियों से विहीन हैं, उनको भी जिन्हें पिण्ड नहीं मिलने वाला है, उनको भी जिनकी मृत्यु के उपरान्त सभी कृत्य बन्द हो गये हैं, उनको जो जन्मान्ध एवं लूले-लँगड़े रहे हैं, उनको जो अष्टावक्र थे या गर्भ में ही मर गये, उनको भी जो मेरे लिए ज्ञात या अज्ञात हैं, यह पिण्ड दे रहा हूँ, यह पिण्ड उन्हें बिना समाप्त हुए प्राप्त हो!' (वायु० ११०१५१-५२) । इसके उपरान्त व्यक्ति को अपने नौकरों, दासों, मित्रों, आश्रितों, शिष्यों, जिनके प्रति वह कृतज्ञ हो उन्हें, पशुओं, वृक्षों और उन्हें, जिनके सम्पर्क में वह अन्य जीवनों में आया है, एक अन्य पिण्ड देना चाहिए (वायु० ११०१५४-५५)। यदि व्यक्ति रुग्ण हो और विशद विधि का पालन न कर सके तो उसे संकल्प करना चाहिए कि वह श्राद्ध करेगा और उसे केवल एक पिण्ड निम्न मन्त्र के साथ देना चाहिए; 'मैं यह पिण्ड अपने पिता, पितामह, प्रपितामह, माता, पिता की माता, प्रपितामही, नाना, नाना के पिता एवं प्रपिता को दे रहा हूँ। यह उन्हें अक्षय होकर प्राप्त हो।' (वायु० ११०।२३-२४)।
___ अनुशासनपर्व, कूर्मपुराण, नारदीयपुराण (उत्तर, ६३।१९-२० एवं ३६-३८) आदि ने माघ मास में संगम-स्नान की महत्ता गायी है। सभी वर्गों के लोग, स्त्रियाँ, वर्णसंकर आदि यह स्नान कर सकते हैं; शूद्र, स्त्रियाँ एवं वर्णसंकर लोगों को मन्त्रोच्चारण नहीं करना चाहिए, वे लोग मौन होकर स्नान कर सकते हैं या 'नमः' शब्द का उच्चा
४३. अर्घ्यमावाहनं चैव द्विजांगुष्ठनिवेशनम् । तृप्तिप्रश्नं च विकिरं तीर्थश्राद्ध विवर्जयेत् ॥ त्रिस्थलोसेतुसारसंग्रह (पृ० १८) द्वारा उद्धृत; देवाश्च पितरो यस्माद् गंगायां सर्वदा स्थिताः। आवाहनं विसर्ग (विसर्गश्च ?) तेषां तत्र ततो न हि ॥ काशीखण्ड (२८३९); तीर्थ श्राद्धं प्रकुर्वीत पक्वान्नेन विशेषतः। आमानेन हिरण्येन कन्दमूलफलैरपि। सुमन्तु (त्रिस्थलीसेतुसारसंग्रह, पृ० २०)। सक्तुभिः पिण्डदानं तु संयावः पायसेन तु। कर्तव्यमृषिभिवृष्टं पिप्याकेन गुडेन च ॥ श्रावंतत्र तु कर्तव्यमावाहनजितम् । श्वध्वांक्षगृध्रकाकानां नैव दृष्टिहतं च यत् ॥ श्राद्धंततैथिकं प्रोक्तं
कारकम् ।...काले वाप्यथवाऽकाले तीर्थे श्राद्धं तथा नरैः। प्राप्तरव सदा कार्य कर्तव्यं पितृतर्पणम् ॥ पिण्डदानं च तच्छस्तं पितृणामतिवल्लभम्। विलम्बो नैव कर्तव्यो न च विघ्नं समाचरेत् ॥ पद्म० (५।२९।२१२-२१८, पृथ्वीचन्द्रोदय द्वारा उद्धृत)। इन्हीं श्लोकों को कल्पतरु (तीर्थ, पृ० १०), तीर्थचिन्तामणि (पृ० १०-११), गंगावाक्यावली (पृ० १२९) ने देवीपुराण से उद्धृत किया है। इनमें कुछ श्लोकों के लिए देखिए स्कन्द० (काशीखण्ड, ६।५८-६०) एवं नारदीय० (उत्तर, ६२१४१-४२, अन्तिम दो श्लोकों के लिए)।
४४. वश तीर्थसहस्राणि षष्टिकोट्यस्तथापराः। समागच्छन्ति माध्यां तु प्रयागे भरतर्षभ । अनुशासन० (२५॥
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