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काशी के नामों की निरुक्ति
१३४३ या महाश्मशान । काशीखण्ड (२६।३४ ) के मत से शंकर ने इसे सर्वप्रथम आनन्दकानन कहा और तब इसे अविमुक्त कहा। इन विभिन्न नामों के विषय में पुराणों एवं अन्य ग्रन्थों में संकेत आये हैं। काशी शब्द 'काश्' ( अर्थात् चमकना ) से बना है। स्कन्द ० में आया है कि काशी इसलिए प्रसिद्ध हुई कि यह निर्वाण के मार्ग में प्रकाश फेंकती है या इसलिए कि यहाँ अनिर्वचनीय ज्योति अर्थात् देव शिव मासमान हैं ( काशी०, २६/६७ ) । वाराणसी की व्युत्पत्ति कुछ पुराणों ने इस प्रकार की है कि यह वरणा एवं असि नामक दो धाराओं के बीच में है जो क्रम से इसकी उत्तरी एवं दक्षिणी सीमाएँ बनाती हैं (पद्म०, आदि, ३३।४९ मत्स्य० १८३।६२; स्कन्द०, काशी० ३०।६९-७०; अग्नि० ११२।६; वामन०, श्लोक ३८ ) । पुराणों में बहुधा वाराणसी एवं अविमुक्त नाम आते हैं । जाबालोपनिषद् में गूढार्थ के रूप में 'अविमुक्त', 'वरणा' एवं 'नासी' शब्द आये हैं- “अत्रि ने याज्ञवल्क्य से पूछा - कोई अनभिव्यक्त आत्मा को कैसे जाने ? याज्ञवल्क्य ने व्याख्या की कि उसकी पूजा अविमुक्त में होती है, क्योंकि आत्मा अविमुक्त में केन्द्रित है । तब एक प्रश्न पूछा गया -- अविमुक्त किसमें केन्द्रित है या स्थापित है? तो उत्तर है कि अविमुक्त वरणा एवं नासी के मध्य में अवस्थित है । 'वरणा' नाम इसलिए पड़ा कि यह इन्द्रियजन्य दोषों को दूर करती है और 'नासी' इन्द्रियजन्य पापों को नष्ट करती है। तब एक प्रश्न पूछा गया; इसका स्थान क्या है ? उत्तर यह है कि यह भौंहों एवं नासिका का संयोग है, अर्थात् अविमुक्त की उपासना का स्थान भौंहों (भ्रू -युग्म ) एवं नासिका की जड़ के बीच है ।" इससे प्रकट होता है कि 'वरणा' एवं 'नासी' नाम है ( न कि 'वरणा' एवं 'असि' ) । वामनपुराण ने 'असी' शब्द का प्रयोग किया है। यही बात पद्म० में भी है । अविमुक्त को निषेधात्मक 'न' (जिसके लिए यहाँ 'अ' रखा गया है) लगाकर समझाया गया है, और विमुक्त ( त्यक्त) के साथ 'न' ('अ' ) को जोड़कर उसकी व्याख्या की गयी है । बहुतसे पुराणों के मतानुसार इस पवित्र स्थल का नाम अविमुक्त इसलिए पड़ा कि शिव (कभी-कभी शिव एवं शिवा ) ने इसे कभी नहीं त्यक्त किया या छोड़ा।" लिंग में एक अन्य व्युत्पत्ति दी हुई है; 'अवि' का अर्थ है 'पाप', अत: यह पाप से मुक्त अर्थात् रहित है ।' काशीखण्ड (३९।७४ ) का कथन है कि आरम्भ में यह पवित्र स्थल आनन्दकानन था और आगे चलकर यह अविमुक्त बना, क्यों कि यद्यपि शिव मन्दर पर्वत पर चले तो गये, किन्तु उन्होंने इसे पूर्णतया छोडा नहीं बल्कि यहाँ अपना लिंग छोड़ गये ।
शिव को वाराणसी बड़ी प्यारी है, यह उन्हें आनन्द देती है अत: यह आनन्दकानन या आनन्दवन है ।' कुछ कारणों से यह श्मशान या महाश्मशान भी कही जाती है। ऐसा लोगों का विश्वास रहा है कि काशी लोगों को संसार से मुक्ति देती है और सभी धार्मिक हिन्दुओं के विचार एवं आकांक्षाएँ काशी की पवित्र मिट्टी में ही मरने के लिए उन्हें प्रेरित करते रहे हैं तथा इसी से बूढ़े एवं जीर्ण-शीर्ण लोग यहाँ जुटते रहे हैं, असाध्य रोगग्रस्त मानवों को लोग
७. मुने प्रलयकालेपि न तत्क्षेत्रं कदाचन । विमुक्तं हि शिवाभ्यां यदविमुक्तं ततो विदुः ॥ स्कन्द० (काशी० २६।२७; त्रिस्थली०, पृ० ८९); लिंगपुराण (पूर्वार्ध, ९२।४५-४६ ) में आया है --विमुक्तं न मया यस्मान्मोक्ष्यते वा कदाचन । मम क्षेत्रमिदं तस्मादविमुक्तमिति स्मृतम् ।। और देखिए यही श्लोक नारदीय० ( उत्तर, ४८।२४ ) में; मत्स्य० (१८०।५४एवं १८१।१५ ) ; अग्नि० ( ११२।२) एवं लिंग० (१।९२।१०४) ।
८. अविशब्देन पापस्तु वेदोक्तः कथ्यते द्विजैः । तेन मुक्तं मया जुष्टमविमुक्तमतोच्यते । लिंग० (पूर्वार्ध, ९२।१४३) ।
९. यथा प्रियतमा देवि मम त्वं सर्वसुन्दरि । तथा प्रियतरं चैतन में सदानन्दकाननम् ॥ काशी० (३२।१११ ) ; अविमुक्तं परं क्षेत्रं जन्तूनां मुक्तिदं सदा । सेवेत सततं धीमान विशेषान्मरणान्तिके ।। लिंग० ( १।९१।७६) ।
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