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काशी-विश्वनाथ का विलोप तथा पुनः स्थापना; अन्य मन्दिर, घाट, पञ्च तीर्थ
ऊपर तक बनारस में विश्वनाथ का कोई मन्दिर नहीं रहा। सम्भवतः लिंग समय-स्थिति के फलस्वरूप एक स्थान से दूसरे स्थान पर रखा जाता रहा और यात्री लोग पूजा के कुछ अंग (नमस्कार एवं प्रदक्षिणा) प्रतिमा-स्थल पर ही करते रहे, किन्तु वे पूजा के अन्य अंग, यथा गंगा-जल से प्रतिमा-स्नान आदि नहीं करा सकते थे। आधुनिक विश्वनाथ
ई होल्कर द्वारा १८वीं शताब्दी के अन्तिम चरण में बनवाया गया। त्रिस्थलीसेतू (प० १८३) ने विश्वेश्वर के प्रादुर्भाव के प्रश्न पर विचार करते हुए यह लिखा है कि अस्पृश्यों द्वारा छूने से विश्वेश्वरलिंग दूषित नहीं हो सकता, क्योंकि प्रत्येक दिन प्रातःकाल मणिकर्णिका में स्नान एवं पूजा करने से विश्वेश्वर उस दोष को दूर कर लेते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि सामान्य लिंगों के विषय में बड़ी सावधानी प्रदर्शित की जाती है। लिंगों को सभी लोग नहीं छू सकते, किन्तु विश्वेश्वरलिंग को पापी भी छू सकता है, उसकी पूजा कर सकता है और उस पर गंगाजल चढ़ा सकता है। किन्तु नारायण भट्ट के इस कथन से यह स्पष्ट नहीं हो पाता कि अस्पृश्य भी इसे छू सकते हैं।
ऐसा प्रतीत होता है कि वाचस्पति के मत से अविमुक्तेश्वर लिंग विश्वनाथ ही हैं, किन्तु त्रिस्थलीसेतु (पृ० २९६) एवं तीर्थप्रकाश (पृ० १८७) ने यह मत अमान्य ठहराया है। स्कन्द (काशी०, १०।९।९३) ने विश्वेश्वर एवं अविमुक्तेश्वर को पृथक-पृथक लिंग माना है। विश्वनाथ के अतिरिक्त यात्री-गण बनारस में पाँच तीर्थों (पंचतीर्थी) की यात्रा करते हैं। मत्स्य० (१८५।६८-६९) के अनुसार विश्वेश्वर के आनन्दकानन में पाँच प्रमुख तीर्थ हैं; दशाश्वमेध, लोलार्क," केशव, बिन्दुमाधव एवं मणिकर्णिका।" आधुनिक काल के प्रमुख पंचतीर्थ हैं असि एवं गंगा का संगम, दशाश्वमेध घाट, मणिकर्णिका, पंचगंगा घाट तथा वरणा एवं गंगा का संगम। यह काशीखण्ड (१०६।११० एवं ११४) पर आधारित है। लोलार्क तीर्थ असि (वाराणसी की दक्षिणी सीमा) एवं गंगा के संगम पर अवस्थित माना जाता है। काशीखण्ड (४६।४८-४९) ने लोलार्क नाम की व्याख्या की है कि 'काशी को देखने पर सूर्य का मन लोल (चंचल) हो गया।' वर्षा ऋतु में असि लगभग ४० फुट चौड़ी धारा हो जाती है, किन्तु अन्य कालों में यह सूखी रहती है। काशी के कतिपय घाट मनोरम दृश्य उपस्थित करते हैं । बनारस में पहुँचकर गंगा उत्तर की ओर घूम जाती है (अर्थात् हिमालय की दिशा में प्रवाहित हो जाती है, अतः यह यहाँ विशिष्ट रूप से पूज्य एवं पवित्र है। दशाश्वमेध घाट शताब्दियों से विख्यात रहा है। डा० जायसवाल ने जो व्याख्या उपस्थित की है, वह ठीक ही है; भारशिव लोग सम्राट थे, वे गंगा के जल से अभिषिक्त हुए थे और दश अश्वमेध यज्ञों के उपरान्त उन्होंने यहाँ अभिषेक किया था और इसी कारण इस घाट का नाम दशाश्वमेध पड़ा (डा० जायसवाल का ग्रन्थ 'हिस्ट्री आव इण्डिया', सन् १५० ई० से ३५० ई० तक, पृ० ५) । प्रातःकाल दशाश्वमेध घाट पर गंगा की शोभा अति रमणीय हो उठती है (इस घाट की प्रशस्ति के लिए देखिए काशीखण्ड (५२।८३) एवं त्रिस्थलीसेतु (पृ० १५९)। काशीखण्ड का कथन है कि इस तीर्थ का प्रारम्भिक नाम था रुद्रसर, किन्तु जब ब्रह्मा ने यहाँ दश अश्वमेध किये तो यह दशाश्वमेध हो गया (५२६६६-६८)। मणिकर्णिका, जिसे मुक्तिक्षेत्र भी कहा जाता है, बनारस के धार्मिक जीवन का केन्द्र है और बनारस के सभी तीर्थों में सर्वोच्च माना जाता है। काशीखण्ड में एक विचित्र गाथा है (२६।५१-६३ एवं त्रिस्थली०, पृ० १४५-१४६)विष्णु ने अपने चक्र से एक पुष्करिणी खोदी, उसे अपने स्वेद (पसीने) से भर दिया और १०५० (या ५००००) वर्षों
१३. काशी में कई सूर्य-तीर्थ हैं, जिनमें लोलार्क भी एक है (काशीखण्ड, १०८३), अन्य १२ अर्क हैं उत्तरार्क, साम्बादित्य आदि (४६।४५-४६)।
१४. तीर्थानां पञ्चकं सारं विश्वेशानन्दकानने। दशाश्वमेध लोलार्कः केशवो बिन्दुमाधवः॥पञ्चमी तु महाश्रेष्ठा प्रोच्यते मणिकर्णिका । एभिस्तु तीर्थवर्यश्च वर्ण्यते ह्यविमुक्तकम् ॥ मत्स्य० (१८५।६८-६९)।
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