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मणिकर्णिका, पंचक्रोशी परिक्रमा, ज्ञानवापी, काशी-निवास आदि का वर्णन
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चौथे दिन यात्री ८ मील चलकर शिवपुर पहुंचता है। पाँचवें दिन ६ मील चलकर वह कपिलधारा पहँचता है और वहाँ पितरों का श्राद्ध करता है। छठे दिन वह कपिलधारा से वरणासंगम पहुँचकर उसके आगे ६ मील मणिकर्णिका पहुँचता है। कपिलधारा से मणिकर्णिका जाते समय यात्री यव (जौ) छींटता जाता है। तब यात्री स्नान करता है, पुरोहित को दक्षिणा देता है और साक्षी-विनायक के मन्दिर में जाता है। ऐसी कल्पना की गयी है कि साक्षी-विनायक पञ्चक्रोशी-यात्रा के साक्षी होते हैं।
वाराणसी में बहुत-से उपतीर्थ हैं, जिनमें कुछ का वर्णन संक्षेप में किया जा सकता है। ज्ञानवापी की गाथा काशीखण्ड (अ० ३३) में आयी है। त्रिस्थलीसेतु (पृ० १४८-१५०) ने इसकी ओर संकेत किया है। ऐसा कहा गया है कि जब शिव (ईशान) ने विश्वेश्वरीलंग को देखा तो उन्हें इसको शीतल जल से स्नान कराने की इच्छा हुई। उन्होंने विश्वेश्वर के मन्दिर के दक्षिण में अपने त्रिशल से एक कण्ड खोद डाला तथा उसके जल से विश्वेश्वरलिंग को स्नान कराया। तब विश्वेश्वर ने वरदान दिया कि यह तीर्थ सर्वोत्तम होगा; क्योंकि 'शिव' जान है (श्लोक ३२) अतः तीर्थ ज्ञानोद या ज्ञानवापी होगा। एक अन्य महत्वपूर्ण तीर्थ है दुर्गा-मन्दिर। काशी० (७२।६७-६५) में दुर्गा स्तोत्र है जिसे वज्रपञ्जर कहा जाता है (त्रिस्थली०, १० १६१)। विश्वेश्वर के मन्दिर से एक मील की दूरी पर भैरवनाथ का मन्दिर है। भैरवनाथ काशी के कोतवाल हैं और बड़ी मोटी पत्थर की लाठी (दण्ड) रखते हैं। इनका वाहन कुत्ता है (काशी०, अध्याय ३०)। गणेश के बहुत-से मन्दिर हैं। विस्थलीसेतु (१० १९८-१९९) ने काशी० (५७१५९-११५ षट्-पंचाशद् गजमखानेतान्य: संस्मरिष्यति) के आधार पर ५६ गणेशों के नाम दिये हैं और उनके स्थानों का उल्लेख किया है। काशी० (५७।३३) में 'ढुण्डि' नाम गणेश का है और इसे 'ढुण्डि' अर्थात् अन्वेषण के अर्थ में लिया गया है (अन्वेषणे ढुण्डिरयं प्रथितोस्ति धातुः)।
त्रिस्थलीसेतु (पृ० ९८-१००) ने इस प्रश्न पर विचार किया है कि क्या काशी में प्रवेश करने से गत जीवनों के भी पाप नष्ट हो जाते हैं या केवल वर्तमान जीवन के ही। कुछ लोगों का मत है कि काशी-यात्रा से इस जीवन के ही पाप मिटते हैं, किन्तु अन्य पवित्र स्थलों में स्नान करने से पूर्व जीवनों के पाप भी कट जाते हैं। अन्य लोगों का मत यह है कि काशी-प्रवेश से सभी पूर्व जीवनों के पाप मिट जाते हैं। किन्तु अन्य स्थलों के स्नान से विभिन्न जीवनों में पाप कर्म करने की भावना मिट जाती है। नारायण भट्ट ने कई मतों की चर्चा की है और अन्त में यही कहा है कि शिष्टों को वही मत मानना चाहिए जो उचित लगे।
काशी के निवास-आचरण के विषय में बहत-से पुराणों ने नियम बताये हैं। ऐसा कहा गया है कि काशी में रहते हुए हलका पाप भी नहीं करना चाहिए। क्योंकि दण्ड उससे कहीं अधिक मिलता है। मत्स्य० (१८५।१७-४५) एवं काशी० (अध्याय ९७) में ऐसी कथा आयी है कि व्यास को जब काशी में भिक्षा नहीं मिली तो वे भूख से कुपित हो उठे और काशी को शाप देने को उद्यत हो गये। शिव ने उनके मन की बात समझकर गृहस्थ का रूप धरकर सर्वोत्तम भोजन दिया और व्यास को आज्ञा दी कि वे काशी में न आयें, क्योंकि वे क्रोधी व्यक्ति हैं। किन्तु उन्हें अष्टमी एवं चतुर्दशी को प्रवेश करने की आज्ञा दे दी। काशी० (९६।१२-८० एवं ११९-१८०) ने काशी-निवास के आचरण के विषय में विस्तार से लिखा है।
काशी के विषय में कुछ अन्य बातें भी दी जा रही हैं। काशी एक बड़ा तीर्थ है, अतः यहाँ पितृश्राद्ध करना चाहिए, किन्तु यदि श्राद्ध कर्म विशद रूप से न किया जा सके तो पिण्डदान कर देना चाहिए (त्रिस्थली, पृ० १२९)। जो लोग यहां तप करते हैं उनके लिए मठों के निर्माण एवं उनके भरण-पोषण की प्रशस्ति गायी गयी है (त्रिस्थलीसेतु, पृ० १३३)।
१२वीं शताब्दी की काशी में गंगा के तट पर कपालमोचन घाट भी था। सन ११२० ई० में सम्राट गोविन्द
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