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धर्मशास्त्र का इतिहास तक इसके तट पर तप किया। शिव यहाँ आये और उन्होंने प्रसन्न होकर अपना सिर हिलाया जिसके फलस्वरूप मणियों (रत्नों) से जड़ा हुआ उनका कर्णाभूषण पुष्करिणी में गिर पड़ा और इसी से इसका नाम मणिकर्णिका पड़ा। काशीखण्ड (२६।६६) में यह नाम एक अन्य प्रकार से भी समझाया गया है; शिव, जो कांक्षापूर्ति करने वाली मणि के समान हैं, अच्छे लोगों के मरते समय उनके कर्ण में यहाँ तारक मन्त्र कहते हैं। उत्तर से दक्षिण १०५ हाथ (१६० फुट) यह विस्तृत है (९९।५४)। आजकल मणिकर्णिका का जल गंदा हो गया है और महँकता है, क्योंकि यह छिछला हो गया है (केवल दो या तीन फुट गहरा), क्योंकि यहाँ सैकड़ों यात्री पुष्प फेंकते हैं और पैसे डालते हैं जिन्हें खोजने के लिए पुरोहित लोग हाथों एवं पैरों से टटोलते हैं। हमको पूजा का ढंग बदलना चाहिए । पुष्प एवं पैसे किनारे पर रखे जाने चाहिए। मणिकर्णिका का ध्यान करने के लिए त्रिस्थलीसेतु (पृ० १५७) ने कई मन्त्र लिखे हैं। मणिकर्णिका के पास तारकेश्वर का मन्दिर है जिनका यह नाम इसलिए पड़ा है कि यहाँ मरते समय व्यक्ति के कान में शिव तारक मन्त्र कहते हैं (काशीखण्ड, ७७८, २५।७२-७३ एवं ३२।११५-११६) । पंचगंगा घाट का नाम इसलिए विख्यात हुआ कि यहाँ पाँच नदियों के मिलने की कल्पना की गयी है यथा किरणा, धूतपापा, गंगा, यमुना एवं सरस्वती, जिनमें चार गुप्त हैं। इसकी बड़ी महत्ता गायी गयी है। नारदीय पुराण एवं काशी० (५९।११८-११३) में ऐसा कहा गया है कि जब व्यक्ति पंचगंगा में स्नान करता है तो पंचतत्त्वों से रचित शरीर में पुनः जन्म नहीं लेता। उक्त पाँच नदियों का यह संगम विभिन्न नामों वाला है, यथा-धर्मनद, धूतपातक, विन्दुतीर्थ एवं पंचनद जो क्रम से कृत (सत्य), त्रेता, द्वापर एवं कलियुग में प्रसिद्ध हैं। काशी० (अध्याय ५९) में पंचगंगा के संगम के विषय में चित्र-विचित्र किंवदन्तियाँ की हुई हैं (५९।१०८-११३ एवं ५९।१०१।१०६) । वरण' नदी वाराणसी की उत्तरी सीमा है और उत्तर के घाट वरणा एवं गंगा के संगम तक पहुँचते हैं। ताम्रपत्रों एवं शिलालेखों से यह सिद्ध होता है कि वहाँ घाट लगभग एक सहस्र वर्षों से रहे हैं। कनौज के गहडवार राजा लोग (जिनके समय के कम-से-कम ५५ ताम्रपत्र एवं ३ शिलालेख सन् १०९७ से ११८७ ई० तक तक्षित प्राप्त हुए हैं ) विष्णु के भक्त थे, और उन्होंने आदि-केशव घाट पर कतिपय दानपत्र दिये। देखिए जे० आर० ए० एस० (१८९६, पृ० ७८७, जहाँ वर्णित है कि महाराज्ञी पृथ्वीश्रीका ने सूर्यग्रहण के समय स्नान किया था और मदनपाल ने दान दिया था), इण्डियन ऐण्टीक्वेरी (जिल्द १९, १०२४९, जहाँ संवत ११८८, अर्थात सन् ११३१ ई० में गोविन्दचन्द्र के दान का उल्लेख है, एपिरॅफिया इण्डिका (जिल्द १४, पृ० १९७, जहाँ इसका वर्णन है कि चन्द्रादित्यदेव ने आदिकेशव घाट पर गंगा-वरणा के संगम घाट पर स्नान करके सवत् ११५६ की अक्षयतृतीया को ३० गाँव ५०० ब्राह्मणों को दिये। इन राजाओं ने अन्य पवित्र स्थलों एवं घाटों पर भी दान दिये। उदाहरणार्थ एपिग्रेफिया इण्डिका (जिल्द ४, पृ० ९७ एवं ८1१४१)। काशी० (१२१५९) में आया है कि जो पवित्र नदियों पर पत्थर के धट्ट (घाट) बनवाते हैं वे वरुणलोक को जाते हैं (घट्टान पुण्यतटिन्यादेबन्धयन्ति शिलादिभिः । तोयाथिसुखसिद्धयर्थं ये नरास्तेत्र भोगिनः ।।)।
पञ्चक्रोशी की यात्रा अत्यन्त पुण्यकर्मों में परिगणित है। अपने कृत्यकल्पतरु ग्रन्थ के तीर्थ-प्रकरण में लक्ष्मीधर ने इसका उल्लेख नहीं किया है। पञ्चक्रोशी का विस्तार लगभग ५० मील है और इस पर सैकड़ों तीर्थ हैं। सम्पूर्ण मार्ग के लिए मणिकर्णिका को केन्द्र माना जाय तो यह मार्ग पाँच कोसों के व्यास से वाराणसी के टेढ़ा-मेढ़ा अर्धवृत्त बनाता है और इसी से इसे पञ्चक्रोशी कहा जाता है। काशीखण्ड (२६।८० एवं ११४ तथा ५५।४४) में 'पञ्चक्रोशी' नाम आया है। संक्षेप में यह यात्रा यों है--यात्री मणिकर्णिका से प्रस्थान करता है, गंगा के तट से होता हआ असि एवं गंगा के संगम पर पहुँचता है और मणिकर्णिका से लगभग ६ मील की दूरी पर जाकर खाण्डव नामक गाँव में एक दिन के लिए रुकता है। दूसरे दिन की यात्रा धपचण्डी नामक ग्राम (लगभग ८ या १० मील) तक होती है, जहाँ उस नाम की देवी की पूजा होती है। तीसरे दिन यात्री १४ मील चलकर रामेश्वर ग्राम में पहुँचता है।
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