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गया-संबन्धी प्राचीन उल्लेखों का अन्वेषण
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११ एवं ९५ । ९ ), विष्णुधर्मसूत्र ( ८५०४, यहाँ 'गयाशीर्ष' शब्द आया है), विष्णुपुराण (२२।२०, जहाँ इसे ब्रह्मा की पूर्व वेदी कहा गया है), महावग्ग (१।२१।१, जहाँ यह आया है कि उरवेला में रहकर बुद्ध सहस्रों भिक्षुओं के साथ गयासीस अर्थात् गयाशीर्ष में गये) में आया है। जैन एवं बौद्ध ग्रन्थों में ऐसा आया है कि राजा गय का राज्य गया के चारों ओर था । उत्तराध्ययनसूत्र में आया है कि वह राजगृह के राजा समुद्रविजय का पुत्र था और ग्यारहवाँ चक्रवर्ती हुआ। अश्वघोष के बुद्धचरित में आया है कि ऋषि गय के आश्रम में बुद्ध आये, उस सन्त (भविष्य के बुद्ध) ने नैरञ्जना नदी के पुनीत तट पर अपना निवास बनाया और पुनः वे गया के काश्यप के आश्रम में, जो उरुबिल्व कहलाता था, गये। इस ग्रन्थ में यह भी आया है कि वहाँ धर्माटवी थी, जहाँ वे ७०० जटिल रहते थे, जिन्हें बुद्ध ने निर्वाण प्राप्ति में सहायता दी थी । विष्णुधर्मसूत्र ( ८५/४० ) में श्राद्ध के लिए विष्णुपद पवित्र स्थल कहा गया है। ऐसा कहा जा सकता है कि और्णवाभ ने किसी क्षेत्र में किन्हीं ऐसे तीन स्थलों की ओर संकेत किया है जहाँ किंवदन्ती के आधार पर, विष्णुपद के चिह्न दिखाई पड़ते थे। इनमें दो अर्थात् विष्णुपद एवं गयशीर्ष विख्यात हैं; अतः ऐसा कहना तर्कहीन नहीं हो सकता कि 'समारोहण' कोई स्थल है जो इन दोनों के कहीं पास में ही है। समारोहण का अर्थ है 'ऊपर चढ़ना', ऐसा प्रतीत होता है कि यह शब्द फल्गु नदी से ऊपर उठने वाली पहाड़ी की चढ़ाई की ओर संकेत करता है। ऐसा सम्भव है कि यह गीतनादित (पक्षियों के स्वर से गुंजित) उद्यन्त पहाड़ी ही है। 'उद्यन्न' का अर्थ है 'सूर्योदय की पहाड़ी'; यह सम्पूर्ण आर्यावर्त का द्योतक है, ऐसा कहना आवश्यक नहीं है; यह उस स्थान का द्योतक है जहाँ विष्णुपद एवं गयशीर्ष अवस्थित हैं। इससे ऐसा कहा जा सकता है कि ईसा के ६०० वर्ष पूर्व अर्थात् बुद्ध के पूर्व कम-से-कम ( गया में ) विष्णुपद एवं गय- शीर्ष के विषय में कोई परम्परां स्थिर हो चुकी थी। यदि किसी ग्रन्थ में इनमें से किसी एक का नाम उल्लिखित नहीं है तो इससे यह नहीं कहा जा सकता कि वह नहीं था और न उसका वह
नाम था ।
अब हम वनपर्व की बात पर आयें। डा० वरुआ इसके कुछ श्लोकों पर निर्भर रह रहे हैं (८४।८२ - १०३ एवं ९५।९-२९) । हम कुछ बातों की चर्चा करके इन श्लोकों की व्याख्या उपस्थित करेंगे।
नारदीय० (उत्तर, ४६।१६) का कथन है कि गयशीर्ष क्रौंचपद से फल्गुतीर्थ तक विस्तृत है। वनपर्व (अध्याय ८२) ने भीष्म के तीर्थ-सम्बन्धी प्रश्नों का उत्तर पुलस्त्य द्वारा दिलाया है। सर्वप्रथम पुष्कर ( श्लोक २०-४०) का वर्णन आया है और तब बिना क्रम के जम्बूमार्ग, तन्दुलिकाश्रम, अगस्त्यसर, महाकाल, कोटितीर्थ, भद्रवट
( पृ० १९), डा० बरुआ (भाग १, पृ० २४६) एवं सैक्रेड बुक आव दि ईस्ट (जिल्द १३, पृ० १३४, जहाँ कनिंघम ने 'गयासीस' को बह्मयोनि माना है )
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४. मेहरौली ( देहली से ९ मोल उत्तर ) के लौह-स्तम्भ के लेख का अन्तिम श्लोक यों है--' तेनायं प्रणिधाय भूमिपतिना प्रांशुविष्णुपदे गिरी भगवतो विष्णोर्ध्वजः स्थापितः' (गुप्ताभिलेख, सं० ३२, पृ० १४१ ) | यह स्तम्भाभिलेख किसी चन्द्र नामक राजा का है। इससे प्रकट होता है कि 'विष्णुपद' नामक कोई पर्वत था । किन्तु यह नहीं प्रकट होता कि इसके पास कोई 'गयशिरस्' नामक स्थल था। अतः 'विष्णुपद' एवं 'गयशिरस्' साथ-साथ गया की ओर संकेत करते हैं । अभिलेख में कोई तिथि नहीं है, किन्तु इसके अक्षरों से प्रकट होता है कि यह समुद्रगुप्त के काल के आसपास का है। अतः विष्णुपद चौथी शताब्दी में देहली के पास के किसी पवंत पर रहा होगा। उसी समय या उसके पूर्व यह विष्णुपद गया में नहीं रहा होगा, इसके विरुद्ध कोई पुष्ट प्रमाण नहीं है। इसके अतिरिक्त, रामायण ( २०६८।१९ ) में यह वर्णन आया है कि विपाशा नदी के दक्षिण में एक विष्णुपद था ।
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