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धर्मशास्त्र का इतिहास
यहाँ उठा लाते हैं, जिससे कि वे गंगा के तटों पर ही मृत्यु को प्राप्त हों और वहीं जलाये जायें। गंगा के तट पर
पर सदा शव जलाये जाते देखे जाते हैं। श्मशान को अपवित्र माना जाता है, किन्तु सहस्रों वर्षों से श्मशान घाट होने पर भी यद् गंगा का परम पवित्र तट माना जाता रहा है। स्कन्द में आया है कि 'इम' का 'शव' और 'शान' का सोना (शयन) या पृथिवी पर पड़ जाना; जब प्रलय (विश्व का अन्त) आता है त तत्त्व शवों के समान यहाँ पड़ जाते हैं, अतः यह स्थान महाश्मशान कहलाता है। पद्म० (१।३३।१४) में आया है कि शिव कहते हैं--'अविमुक्त एक विख्यात श्मशान है, मैं काल (नाशक या काल देवता) होकर.
श करता हूँ।' मत्स्य० ने बहुधा वाराणसी को श्मशान कहा है। काशीखण्ड (३११३१०) में आया है--यदि कोई महाश्मशान में पहुँचकर वहाँ मर जाता है तो भाग्य से उसे पुनः श्मशान में नहीं सोना पड़ता (अर्थात् उसे पुनः जन्म नहीं लेना पड़ता)।
यद्यपि सामान्यतः काशी, वाराणसी एवं अविमुक्त पुराणों में समानार्थक रूप में आये हैं, तथापि कुछ वचनों द्वारा उनके सीमाविस्तारों में अन्तर प्रकट किया गया है। पद्म० (पाताल, त्रिस्थली०, पृ० १०० एवं तीर्थ प्र०, पृ. १७५ द्वारा उदधृत) में आया है कि उत्तर एवं दक्षिण में क्रम से वरणा एव असि, पूर्व में गंगा एवं पश्चिम में पाशपाणि विनायक से वाराणसी सीमित है। आइने-अकबरी (जिल्द २, पृ० १५८) में कहा गया है कि वरणा एवं असी के मध्य में बनारस एक विशाल नगर है और यह एक धनुष के रूप में बना है जिसकी प्रत्यञ्चा गंगा है। मत्स्य. (१८४।५०-५२) में आया है- -'वह क्षेत्र २३ योजन पूर्व एवं पश्चिम में है और १३ योजन उत्तर-दक्षिण है; इसके आगे वाराणसी शुष्क नदी (असि) तक विस्तृत है।' प्रथम अंश का सम्बन्ध सम्पूर्ण काशी क्षेत्र से है, जो पद्म० के मत से, उस भाग को समेटता है जो वृत्ताकार है, जिसका व्यास वह रेखा है जो मध्यमेश्वर-लिंग को देहली-गणेश से मिलती है। मत्स्य० (१८३।६१-६२) ने इसे दो योजन विस्तार में माना है। यही बात अग्नि० (११२१६) में भी है। किन्तु यह सब लगभग विशालता का द्योतक है। योजन से मापी गयी दूरी विभिन्न रूपों वाली है। राइस डेविड्स ने अपने ग्रन्थ 'न्यूमिस्मैटा ओरिण्टैलिया' (लन्दन, १८७७) में पालि ग्रन्थों से ३० पद्यों की व्याख्या एवं परीक्षा करके दर्शाया है कि एक योजन ७ या ८ मील के बराबर होता है। अविमुक्त को विश्वेश्वर से चारों दिशाओं में २०० धनुओं (अर्थात ८०० हाथ या लगभग १२०० फुट) के व्यास में विस्तृत प्रकट किया गया है। अविमुक्त के विस्तार के विषय में मतैक्य नहीं है। काशीखण्ड (२६।३१) में अविमुक्त का विस्तार पाँच योजन कहा गया है। किन्तु वहाँ अविमुक्त काशी के लिए ही प्रयुक्त हुआ है। काशीक्षेत्र का अन्तःवृत्त यों कहा गया है-पश्चिम में गोकर्णेश्वर, पूर्व में गंगा की मध्यधारा, उत्तर में भारभत एवं दक्षिण में ब्रह्मेश्वर के बीच यह स्थित है। लिंग० (पूर्वार्ध, ९२।९९-१००; तीर्थचि०, पृ० ३४० एवं त्रिस्थली०, पृ० १०३) में आया है; कि यह क्षेत्र चारों दिशाओं में चार योजन है और एक योजन मध्य है। नारदीय० (उत्तर, ४८।१८-१९) ने इसकी सीमा यों दी है--(यह क्षेत्र) पूर्व एवं पश्चिम में ढाई योजन तक फैला हुआ है और उत्तर से दक्षिण तक आधा योजन चौड़ा है, देवता शम्भु ने वरुणा एवं एक सूखी धारा असि के मध्य में इसका विस्तार बतलाया है। पद्म० (सृष्टि, १४।१९४-१९६) में ब्रह्मा ने रुद्र से यों कहा है--मैंने तुम्हें पंच क्रोशों में विस्तत एक क्षेत्र दिया है, जब सभी नदियों में श्रेष्ठ गंगा इस क्षेत्र से बहेगी, तब यह नगर महान एवं पवित्र होगा; गंगा, जो (बनारस में) दो योजन तक
१०. दक्षिणोत्तरयोनद्यौ वरणासिश्च पूर्वतः। जाह्नवी पश्चिमे चापि पाशपाणिगणेश्वरः॥ पद्म० (पातालखण्ड, त्रिस्थली०, पृ० १०० एवं तीर्थप्रकाश, पृ० १७२)।
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