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धर्मशास्त्र का इतिहास
लिये। अग्निपुराण (११४॥३७) ने इतना जोड़ दिया है कि ब्रह्मा ने उन्हें शाप दिया कि वे विद्याशून्य होंगे और लालची हो जायेंगे।" इस पर ब्राह्मणों ने ब्रह्मा से प्रार्थना की और अपनी जीविका के लिए किसी साधन की मांग की। ब्रह्मा द्रवीभूत हुए और कहा कि उनकी जीविका का साधन गयातीर्थ होगा जो इस लोक के अन्त तक चलेगा और जो लोग गया में श्राद्ध करगे और उनकी पूजा करेंगे (अर्थात् उन्हें पुरोहित बनायेंगे और दक्षिणा देंगे ) वे ब्रह्मा की पूजा का फल पायेंगे। इससे स्पष्ट है कि वायुपुराण के इस प्रकार के लेखन के समय गया के ब्राह्मणों (गयावालों) की वे ही विशेषताएँ थीं जो आज हैं और उन्होंने गया की तीर्थयात्रा को अपना व्यापार समझ लिया था। गयावाल ब्राह्मणों का एक प्रारम्भिक ऐतिहासिक उल्लेख बंगाल के राजा लक्ष्मणसेन (लगभग ११८३ ई०) के शक्तिपुर ताम्रपत्र में पाया जाता है।६२
पुराणों की वाणी का यह परिणाम हुआ कि गया के ब्राह्मणों ने एक अपना समुदाय बना लिया, जिसमें किसी अन्य के प्रवेश की गुंजायश नहीं है। गयावालों के आपसी झगड़े एवं अन्य पुरोहितों से उनके झगड़े इंग्लैंड की प्रिवी कौंसिल तक गये हैं। कट्टर हिन्दू यात्रियों में ऐसा आचरण पाया जाता है कि जब वे गया जाते हैं तो वे सर्वप्रथम पुनपुना नदी के तट पर मुण्डन कराते हैं और गया पहुँचने पर किसी गयावाल ब्राह्मण के चरण पूजते हैं। स्वयं गयावाल या उनके प्रतिनिधि यात्रियों को गया की और उसके आसपास की वेदियों के पास ले जाते हैं। पुरोहित को अक्षयवट के पास पर्याप्त दक्षिणा मिलती है और गयावाल पुष्प की माला यात्री की अंजलि पर रखता है, 'सुफल' घोषित करता है
और उच्चरित करता है कि यात्री के गया आने से पितर लोग स्वर्ग जायेंगे। अपने ही कुलों में इस धर्म-व्यापार को सीमित रखने के लिए गयावालों ने विलक्षण परम्पराएँ स्थापित कर रखी हैं। पुत्रहीन गयावाल अपनी गद्दी का उत्तराधिकारी किसी गयावाल को ही बना देता है, जो अपने को उसका दत्तक पुत्र मानता है। यहाँ पर यह दत्तकप्रथा वास्तविक दत्तकप्रथा नहीं है। अतः दत्तक पुत्र अपने जन्म-कुल में ही अपने अधिकार रख लेता है और उसका सम्बन्ध अपने वास्तविक कुल से नहीं टूटता । इसी से कभी-कभी एक ही गयावाल चार-चार गद्दियों का अधिकार पा लेता है (अर्थात् एक साथ कई लोगों द्वारा दत्तक बना लिया जाता है)। प्रत्येक गयावाल के पास बही होती है जिसमें उसके यजमानों के नाम एवं पते रहते हैं, जिसमें वे अपने हस्ताक्षर कर देते हैं और ऐसा निर्देश कर देते हैं कि उनके वंशज उसी गयावाल-कुल के लोगों को अपना पुरोहित मानें। इस प्रकार गयावालों के पास प्रचुर धन एवं सम्पत्ति आ जाती है। गयावाल अपने प्रतिनिधियों को सम्पूर्ण देश में भेजते हैं, जो अधिक से अधिक संख्या में यात्रियों को लाते हैं।
धर्मशास्त्र-सम्बन्धी ग्रन्थों में तीर्थ पर जो साहित्य है वह अपेक्षाकृत सबसे अधिक विशद है। वैदिक साहित्य को छोड़कर, महाभारत एवं पुराणों में कम से कम ४०,००० श्लोक तीर्थों, उपतीर्थों एवं उनसे सम्बन्धित किंवदन्तियों के विषय में ही प्रणीत हैं। वनपर्व (अध्याय ८२-१५६) एवं शल्यपर्व (अध्याय ३५-५४) में ही ३९०० के लगभग केवल तीर्थयात्रा-सम्बन्धी श्लोक हैं। यदि कुछ ही पुराणों का हवाला दिया जाय तो ब्रह्मपुराण में ६७०० श्लोक (इसके सम्पूर्ण अर्थात् १३७८३ श्लोकों का लगभग अ(श) तीर्थों के विषय में हैं; पद्म० के प्रथम पाँच खण्डों के
६१. स्थिता यदि गयायां ते शप्तास्ते ब्रह्मणा तदा। विद्याविजिता यूयं तृष्णायुक्ता भविष्यथ ॥ अग्निपुराण (११४॥३६-३७)।
६२. 'श्रीबल्लालसेनदेवप्रदत्त-गयाल-बाह्मणहरिदासेन प्रतिगृहीतपञ्चशतोत्पत्तिकक्षेत्रपांटकाभिधानशासनविनिमयेन।' देखिए एपिप्रैफिया इण्डिका, जिल्द-२१, पृ० २११ एवं २१९ ।
६३. गरुडपुराण में आया है--वाराणस्यां कृतश्रावस्तीर्थ शोणनदे तथा। पुनःपुनामहानद्यां श्रावं स्वर्ग पितृनयेत्॥
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