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गंगाजी की प्रशंसा
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से सौभाग्य प्राप्त होता है, जब इसमें स्नान किया जाता है या इसका जल ग्रहण किया जाता है तो सात पीढियों तक कुल पवित्र हो जाता है। जब तक किसी मनुष्य की अस्थि गंगा-जल को स्पर्श करती रहती है तब तक वह स्वर्गलोक में प्रसन्न रहता है। गंगा के समान कोई तीर्थ नहीं है और न केशव के सदृश कोई देव । वह देश, जहाँ गंगा बहती है और वह तपोवन जहाँ गंगा पायी जाती है, उसे सिद्धिक्षेत्र कहना चाहिए, क्योंकि वह गंगातीर को छूता रहता है।" अनुशासनपर्व (३६।२६,३०-३१) में आया है कि वे जनपद एवं देश, वे पर्वत एवं आश्रम, जिनसे होकर गंगा बहती है, पुण्य का फल देने में महान् हैं। वे लोग, जो जीवन के प्रथम भाग में पापकर्म करते हैं, यदि गंगा की ओर जाते हैं तो परम पद प्राप्त करते हैं। जो लोग गंगा में स्नान करते हैं उनका फल बढ़ता जाता है, वे पवित्रात्मा हो जाते हैं और ऐसा पुण्यफल पाते हैं जो सैकड़ों वैदिक यज्ञों के सम्पादन से भी नहीं प्राप्त होता। और देखिए नारदीय० (३९।३०-३१ एवं ४०१६४)।
भगवद्गीता में भगवान् श्री कृष्ण ने कहा है कि धाराओं में मैं गंगा हूँ (स्रोतसामस्मि जाह्नवी, १०।३१)। मनु (८।९२) ने साक्षी को सत्योच्चारण के लिए जो कहा है उससे प्रकट होता है कि मनुस्मृति के काल में गंगा एवं कुरुक्षेत्र सर्वोच्च पुनीत स्थल थे। कुछ पुराणों ने गंगा को मन्दाकिनी के रूप में स्वर्ग में, गंगा के रूप में पृथिवी पर और भोगवती के रूप में पाताल में प्रवाहित होते हुए वर्णित किया है (पद्म०६।२६७।४७)। विष्णु आदि पुराणों ने गंगा को विष्णु के बायें पैर के अंगूठे के नख से प्रवाहित माना है। कुछ पुराणों में ऐसा आया है कि शिव ने अपनी जटा से
को सात धाराओं में परिवर्तित कर दिया, जिनमें तीन (नलिनी, हादिनी एवं पावनी) पूर्व की ओर, तीन (सीता, चक्षुस् एवं सिन्धु) पश्चिम की ओर प्रवाहित हुई और सातवीं धारा भागीरथी हुई (मत्स्य० १२११३८-४१; ब्रह्माण्ड० २।१८१३९-४१ एवं पद्म० ११३।६५-६६) । कूर्म० (११४६।३०-३१) एवं वराह० (अध्याय ८२, गद्य में) का कथन है कि गंगा सर्वप्रथम सीता, अलकनंदा, सुचक्ष एवं भद्रा नामक चार विभिन्न धाराओं में बहती है; अलकनन्दा दक्षिण की ओर बहती है, भारतवर्ष की ओर आती है और सप्त मुखों में होकर समुद्र में गिरती है। ब्रह्म० (७३।६८-६९) में गंगा को विष्णु के पाँव से प्रवाहित एवं शिव के जटाजूट में स्थापित माना गया है।
विष्णुपुराण (२।८।१२०-१२१) ने गंगा की प्रशस्ति यों की है--जब इसका नाम श्रवण किया जाता है, जब कोई इसके दर्शन की अभिलाषा करता है, जब यह देखी जाती है या इसका स्पर्श किया जाता है या जब इसका जल ग्रहण किया जाता है या जब कोई इसमें डुबकी लगाता है या जब इसका नाम लिया जाता है (या इसकी स्तुति की जाती है) तो गंगा दिन-प्रति-दिन प्राणियों को पवित्र करती है; जब सहस्रों योजन दूर रहनेवाले लोग 'गंगा' नाम का उच्चारण करते हैं तो तीन जन्मों के एकत्र पाप नष्ट हो जाते हैं। भविष्य पुराण में भी ऐसा ही आया
२. यमो वैवस्वतो देवो यस्तष हदि स्थितः। तेन चेदविवादस्ते मा गंगा मा कुरूनगमः॥मनु (८०९२)।
३. वामपादाम्बुजांगुष्ठनखस्रोतोविनिर्गताम् । विष्णोबिति यां भक्त्या शिरसाहर्निशं ध्रुवः॥ विष्णुपुराण (२६८।१०९); कल्पतरु (तीर्थ, पृ० १६१) ने 'शिवः' पाठान्तर दिया है। 'नदी सा वैष्णवी प्रोक्ता विष्णुपादसमुद्भवा।' पा० (५।२५।१८८)।
४. तथदालकनन्दा च दक्षिणादेत्य भारतम् । प्रयाति सागरं भित्त्वा सप्तभेदा द्विजोत्तमाः॥कूर्म० (१।४६। ३१)।
५. श्रुताभिलषिता दृष्टा स्पृष्टा पीतावगाहिता। या पावयति भूतानि कीर्तिता च दिने दिने॥ गंगा गंगेति यै म योजनानां शतेष्वपि । स्थितरुच्चारितं हन्ति पापं जन्मत्रयाजितम् ॥ विष्णुपु० (२१८११२०-१२१); गंगा
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