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प्रयाग और त्रिवेणी की महिमा
१३२९ से गंगा एवं यमुना के बीच की भूमि पृथिवी की जाँघ है (अर्थात् यह पृथिवी की अत्यन्त समृद्धिशाली भूमि है) और प्रयाग जघनों की उपस्थ-भूमि है।"
नरसिंह० (६३।१७) का कथन है कि प्रयाग में विष्णु योगमूर्ति के रूप में हैं। मत्स्य० (१११।४-१०) में आया है कि कल्प के अन्त में जब रुद्र विश्व का नाश कर देते हैं उस समय भी प्रयाग का नाश नहीं होता है । ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश्वर (शिव) प्रयाग में रहते हैं। प्रतिष्ठान के उत्तर में ब्रह्मा गुप्त रूप में रहते हैं, विष्णु वहाँ वेणीमाधव के रूप में रहते हैं और शिव वहाँ अक्षयवट के रूप में रहते हैं। इसी लिए गन्धर्वो के साथ देवगण, सिद्ध लोग एवं बड़े-बड़ ऋषिगण प्रयाग के मण्डल को दुष्ट कर्मों से बचाते रहते है।" इसी से मत्स्य० (१०४।१८) में आया है कि यात्री को देवरक्षित प्रयाग में जाना चाहिए, वहाँ एक मास ठहरना चाहिए, वहाँ सम्भोग नहीं करना चाहिए, देवों एवं पितरों की पूजा करनी चाहिए और वांछित फल प्राप्त करने चाहिए। इसी पुराण (१०५।१६-२२) ने यह भी कहा है कि वहाँ दान करना चाहिए, और इसने वस्त्रों, आभूषणों एवं रत्नों से सुशोभित कपिला गाय के दान की प्रशस्ति गायी है। और देखिए पन० (आदि, ४२११७-२४)। मत्स्य० (१०६।८-९) ने प्रयाग में कन्या के आर्ष विवाह की बड़ी प्रशंसा की है। मत्स्य० (१०५।१३-१४) ने सामान्य रूप से कहा है कि यदि कोई गाय, सोना, रत्न, मोती आदि का दान करता है तो उसकी यात्रा सुफल होती है और उसे पुण्य प्राप्त होता है, तथा जब कोई अपनी समर्थता एवं धन के अनुसार दान करता है तो तीर्थयात्रा की फल-बृद्धि होती है, और वह कल्पान्त तक स्वर्ग में रहता है। ब्रह्माण्ड० ने आश्वासन दिया है कि यात्री जो कुछ अपनी योग्यता के अनुसार कुरुक्षेत्र, प्रयाग, गंगा-सागर के संगम, गंगा, पुष्कर, सेतुबन्ध, गंगाद्वार एवं नैमिष में देता है उससे अनन्त फल मिलता है। वनपर्व (८५।८२-८३७७) में आया है कि यह ब्रह्मा की यज्ञ-भूमि देवों द्वारा पूजित है और यहाँ पर थोड़ा भी दिया गया दान महान् होता है।
तीनों नदियों का संगम 'ओंकार से सम्बन्धित माना गया है (ओंकार शब्द ब्रह्म का द्योतक है)। पुराण-वचन ऐसा है कि ओम्' के तीन भाग, अर्थात् अ, उ एवं म् क्रम से सरस्वती, यमुना एवं गंगा के द्योतक हैं और तीनों क जल क्रम से प्रद्युम्न, अनिरुद्ध एवं संकर्षण हरि के प्रतीक हैं।
यह ज्ञातव्य है कि यद्यपि मत्स्य०, कूर्म० (१॥३७॥३९), पद्म० (आदि, अध्याय ४१-४९), अग्नि० (१११)
३०. गंगायमुनयोर्मध्यं पृथिव्या जघनं स्मृतम् । प्रयागं जघनस्थानमुपस्थमृषयो विदुः ॥ वनपर्व (८५।७५ पा० १३३९।६९ एवं ११४३।१९); अग्नि० (१११।४); कूर्म० (१॥३७॥१२) एवं मत्स्य० (१०६।१९)। भावना यह है कि तीर्थ-स्थल पृथिवी के बच्चों के समान है।
३१. प्रयागं निवसन्त्येते ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः। उत्तरेण प्रतिष्ठानाच्छद्मना ब्रह्म तिष्ठति ॥वेणीमाधवरूपी तु भगवास्तत्र तिष्ठति। महेश्वरो वटो भूत्वा तिष्ठते परमेश्वरः॥ ततो देवाः सगन्धर्वाः सिद्धाश्च परमर्षयः। रक्षन्ति मण्डलं नित्य पापकर्मनिवारणात् ॥ मत्स्य० (१११॥४-१०)। और देखिए कूर्म० (११३६।२३-२६), पद्म० (आविखण्ड ४११६-१०)।
३२. कुरुक्षेत्रे प्रयागे च गंगासागरसंगमे। गंगायां पुष्करे सेतो गंगाद्वारे च नैमिषे। यद्दानं दीयते शक्त्या तदानन्त्याय कल्पते ॥ ब्रह्माण्ड० (त्रिस्थलीसेतु, पृ० २४)।
३३. ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म परब्रह्माभिधायकम्। तदेव वेणी विज्ञेया सर्वसौल्यप्रदायिनी ॥ अकारः शारदा प्रोक्ता प्रधुम्नस्तत्र जायते। उकारो यमुना प्रोक्तानिरुद्धस्तज्जलात्मकः ॥ मकारो जाह्नवी गंगा तत्र संकर्षणो हरिः। एवं त्रिवेणी विख्याता वेदबीजं प्रकोतिता ॥ त्रिस्थलीसेतु (१०८) द्वारा उद्धत।
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