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प्रयान का अर्थ और सीमा
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कहा है। महाभारत ने प्रयाग की महत्ता का वर्णन किया है (वन० ८५।६९-९७, ८७॥ १८-२०; अनुशासन २५।३६-३८) । पुराणों में भी इसकी प्रशस्ति गायी गयी है (मत्स्य०, अध्याय १०३-११२; कूर्म० ११३६-३९; पत्र. १, अध्याय ४०-४९; स्कन्द०, काशीखण्ड, अध्याय ७४४५-६५)। हम केवल कुछ ही श्लोकों की ओर संकेत कर सकेंगे। यह ज्ञातव्य है कि रामायण ने प्रयाग के विषय में कुछ विशेष नहीं कहा है। संगम का वर्णन आया है, किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि उन दिनों वहाँ वन था (रामायण, २१५४-६)। प्रयाग को तीर्थराज कहा गया है (मत्स्य० १०९।१५, स्कन्द० काशीखण्ड, ७।४५ एवं पद्म०, ६।२३।२७-३५, जहाँ प्रत्येक श्लोक के अन्त में “स तीर्थराजो जयति प्रयागः" आया है)। गाथा यों है कि प्रजापति या पितामह (ब्रह्मा) ने यहाँ यज्ञ किया था प्रयाग ब्रह्मा की वेदियों में बीच वाली वेदी है, अन्य वेदियाँ हैं उत्तर में कुरुक्षेत्र (जिसे उत्सरवेदी कहा जाता है) एवं पूर्व में गया। ऐसा विश्वास है कि प्रयाग में तीन नदियाँ मिलती हैं, यथा गंगा, यमुना एवं सरस्वती (जो दोनों के बीच में अन्तभूमि में है)। मत्स्य, कूर्म आदि पुराणों में ऐसा कहा गया है कि प्रयाग के दर्शन, नाम लेने या इसकी मिट्टी लगाने मात्र से मनुष्य पापमुक्त हो जाता है। कूर्म० ने घोषणा की है--'यह प्रजापति का पवित्र स्थल है, जो यहाँ स्नान करते हैं, वे स्वर्ग जाते हैं और जो यहाँ मर जाते हैं वे पुनः जन्म नहीं लेते।' यही पुनीत स्थल तीर्थराज है; यह केशव को प्रिय है। इसी को त्रिवेणी की संज्ञा मिली है।'
'प्रयाग' शब्द की व्युत्पत्ति कई प्रकार से की गयी है। वनपर्व में आया है कि सभी जीवों के अधीश ब्रह्मा ने यहां प्राचीन काल में यज्ञ किया था और इसी से 'यज्' धातु से 'प्रयाग' बना है। स्कन्द० ने इसे 'प्र' एवं 'याग' से युक्त माना है"---'इसलिए कहा जाता है कि यह सभी यज्ञों से उत्तम है, हरि, हर आदि देवों ने इसे 'प्रयाग' नाम दिया है।' मत्स्य० ने 'प्र' उपसर्ग पर बल दिया है और कहा है कि अन्य तीर्थों की तुलना में यह अधिक प्रभावशाली है।
परिपठ्येते सितासिते सरिवरे। तत्राप्लुतांगा ह्ममृतं भवन्तीति विनिश्चितम्॥ (त्रिस्थलीसेतु, पृ० ११)। और देखिए काशीखण (७।४६)। इसमें सन्देह नहीं कि इस श्लोक में वैदिक रंग है। त्रिस्थली० (पृ०४) में एक अन्य पाठान्तर की ओर संकेत है। गंगा का जल श्वेत (सित) एवं यमुना का नील होता है। संस्कृत के कवियों ने बहुधा जलरंगों की. मोर संकेत किया है। देखिए रघुवंश (१३।५४-५७)।
२२. वश तीर्थसहस्राणि तिस्रः कोट्यस्तथापराः। समागच्छन्ति माध्यां तु प्रयागे भरतर्षभ ॥ माघमासं प्रयागे दुनियतः संशितव्रतः । स्नात्वा तु भरतश्रेष्ठ निर्मलः स्वर्गमाप्नुयात् ।। अनुशासन० (२५।३६-३८)। दर्शनात्तस्य तीर्थस्य नामसंकीतनादपि । मृत्तिकालम्भनाद्वापि नरः पापात् प्रमुच्यते ॥ मत्स्य० (१०४।१२), कूर्म० (११३६।२७)। और देखिए अग्नि० (१११॥६-७) एवं वनपर्व (८५।८०) । एतत् प्रजापतेः क्षेत्रं त्रिषु लोकेषु विश्रुतम् । अत्र स्नात्वा विवं गान्ति ये मृतास्तेऽपुनर्भवाः ॥ कूर्म० (११३६।२०)। मत्स्य० (१०४.५ एवं १११।१४)एवं नारद० (उत्तर, ६३॥ १२७-१२८) ने भी इसे 'प्रजापतिक्षेत्र' की संज्ञा दी है।
२३. गंगायमुनयोर्वीर संगम लोकविश्रुतम् । यत्रायजत भूतात्मा पूर्वमेव पितामहः। प्रयागमिति विख्यातं तस्माद् भरतसत्तम ॥ वनपर्व (८७॥१८-१९); तथा सर्वेषु लोकेषु प्रयागं पूजयेद् बुधः। पूज्यते तीर्थराजस्तु सत्यमेव युधिष्ठिर ॥ मत्स्य० (१०९।१५)।
२४. प्रकृष्टं सर्वयागेम्यः प्रयागमिति गीयते। दृष्ट्वा प्रकृष्टयागेभ्यः पुष्टेभ्यो दक्षिणादिभिः। प्रयागमिति तन्नाम कृतं हरिहरादिभिः॥ (त्रिस्थलीसेतु, पृ० १३)। प्रथम अंश स्कन्द० (काशी० ७४४९) में भी आया है। बतः'प्रयाग' का अर्थ है 'यागेम्यः प्रकृष्टः', 'यज्ञों से बढ़कर जो है या 'प्रकृष्टो यागो यत्र', 'जहाँ उत्कृष्ट यज्ञ है।'
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