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प्रयाग में मुण्डन और देह त्याग का विधान
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मुण्डन कराना चाहिए। ऐसी नारियों को अपने केशों की वेणी बनाकर उसे कुंकुम एवं अन्य शुभ पदार्थों से सुशोभित कर अपने पति के समक्ष झुककर अनुमति माँगनी चाहिए और अनुमति पाकर मुण्डन करना चाहिए, फिर सिर पर सोने या चाँदी की वेणी एवं मोती तथा सीपी रखकर सबको गंगा-यमुना के संगम (वेणी) में निम्न मन्त्र पढ़कर बहा देना चाहिए- 'वेणी में इस वेणी को फेंकने से मेरे सारे पाप नष्ट हो जायँ, और आनेवाले जीवन में मेरा सधवापन वृद्धि को प्राप्त हो ।' त्रिस्थलीसेतु का कथन है कि प्रयाग को छोड़कर अन्य तीर्थों में नारियाँ मुण्डन नहीं करातीं, इसका एक मात्र कारण है शिष्टाचार ( विद्वान् लोगों का आचरण या व्यवहार ) । नारदीय० ( उत्तर, ६३।१०६) ने स्त्रियों के विषय में पराशर के नियमों को मान्यता दी है। प्रायश्चित्ततत्त्व ( रघुनन्दनकृत) ने प्रयाग में स्त्रियों के लिए पूर्ण मुण्डन की व्यवस्था दी है।
ऐसा सम्भव है कि सधवा स्त्रियों की वेणी को काटकर फेंकना 'वेणी' (दोनों नदियों के संगम ) शब्द से निर्देशित हो गया है, क्योंकि संगम स्थल पर गंगा कुछ दूर तक टेढ़ी होकर बहती है (त्रिस्थली०, पृ० ८ ) । प्राचीन एवं मध्य काल के लेखकों ने इस बात पर विचार किया है कि संगम या अक्षयवट के तले आत्महत्या करने से पाप लगता है कि नहीं और नहीं लगता तो कब ऐसा करना चाहिए। इस विषय में हमने इस ग्रन्थ के खण्ड ३, अध्याय ३४ में विचार कर लिया है। दो-एक बातें यहाँ भी दे दी जा रही हैं। सामान्यतः धर्मशास्त्रीय वचन यह है कि आत्महत्या करना पाप है। आप० ध० सू० (१।१०।२८।१५-१७) ने हारीत का वचन उद्धृत करके कहा है कि महापातक करने के उपरान्त भी प्रायश्चित स्वरूप आत्महत्या करना अच्छा नहीं है । इसने हत्या करना एवं आत्महत्या करना दोनों को समान माना है। मनु ( ५।८९ ) एवं याज्ञ ० ( ३ । १५४ ) ने आत्महत्या को गर्हित ठहराया है और आत्महत्यारे की अन्त्येष्टि का निषेध किया है, किन्तु मनु महापातकों के लिए प्रायश्चित्तस्वरूप आत्महत्या की व्यवस्था देते हैं (११।७३, ९०-९१ एवं १०३-१०४) । किन्तु स्मृतियों, महाकाव्यों एवं पुराणों ने आत्महत्या को अपवाद रूप में माना है। इसे हम कई कोटियों में रख सकते हैं - ( १ ) महापातकों (ब्रह्महत्या, सुरापान, ब्राह्मण के सोने की चोरी, गुरुतल्पगमन) के अपराध में कई विधियों से आत्महत्या करना; (२) असाध्य रोगों से पीड़ित होने एवं अपने आश्रम के धर्मो के पालन में असमर्थ होने पर वानप्रस्थ का महाप्रस्थानगमन या महापथयात्रा ( मनु६ । ३१ एवं याज्ञ० ३।५५); (३) बूढ़े व्यक्ति द्वारा, जब वह शरीर शुद्धि के नियमों का पालन नहीं कर सकता या जब वह असाध्य रोग से पीड़ित है, प्रपात से गिरकर, अग्नि में जलकर, जल में डूबकर, उपवास कर, हिमालय में महाप्रयाण कर या प्रयाग में वट-वृक्ष की शाखा से नीचे गिरकर आत्महत्या करना ( अपरार्क, पृ० ८७७, आदिपुराण, अत्रिस्मृति २१८-२१९ के उद्धरण; मेधातिथि, मनु ५१८८; मिता०, याज्ञ० ३।६ ) ; (४) गृहस्थ भी स्वस्थ रहने पर भी, उपर्युक्त सं ० ३ के अनुसार आत्महत्या कर सकता है, यदि उसके जीवन का कार्य समाप्त हो चुका हो, यदि उसे संसार के सुखभोग की इच्छा न हो और जीने की इच्छा न हो या यदि वह वेदान्ती हो और जीवन के क्षण-भंगुर स्वभाव से अवगत हो तो हिमालय में उपवास करके प्राण त्याग सकता है; (५) धार्मिक आत्महत्या गंगा एवं यमुना के संगम पर एवं वहीं वट के पास और कुछ अन्य तीर्थों में व्यवस्थित है; ( ६ ) सहगमन या अनुमरण द्वारा पत्नी मर सकती है। सती के विषय में नारदीय० (पूर्वार्ध, ७१५२-५३ ) ने व्यवस्था दी है कि उस नारी को अपने पति की चिता पर नहीं जल मरना चाहिए जिसका बच्चा छोटा हो या जिसके छोटे-छोटे बच्चे हों, जो गर्भवती हो या जो अभी युवा न हुई हो या उस समय वह रजस्वला हो । पुराणों के इस कथन में लोगों का अटूट विश्वास था कि प्रयाग में (संगम या वट के पास) मर जाने से मोक्ष प्राप्त होता है (मोक्ष मानव-जीवन के चार पुरुषार्थों में सर्वोच्च माना जाता था), यहाँ तक कि कालिदास जैसे महान् कवियों ने कहा है कि यद्यपि मोक्ष या कैवल्य या अपवर्ग के लिए वेदान्त, सांख्य एवं न्याय के अनुसार परब्रह्म की अनुभूति एवं सम्यक् ज्ञान आवश्यक है किन्तु पवित्र संगम पर की मृत्यु तत्त्वज्ञान के बिना भी मोक्ष दे सकती है। यश:
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