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धर्मशास्त्र का इतिहास
आदि द्वारा) आधा फल मिलता है, किन्तु पैदल जाने पर पूर्ण फल की प्राप्ति होती है ।" और देखिए पद्म० ( ४ । १९ । २७ ) । कूर्म ० में आया है कि जो लोग असमर्थता के कारण नर-यान या घोड़ों या खच्चरों से खींचे जानेवाले रथों का प्रयोग करते हैं वे पाप या अपराध के भागी नहीं होते ( तीर्थप्र०, पृ० ३४ ) । इसी प्रकार विष्णुपुराण ( ३।१२।३८ ) में आया है कि यात्रा में जूता पहनकर, वर्षा एवं आतप में छाता का प्रयोग करके, रात में या वन में दण्ड लेकर चलना चाहिए। विष्णुधर्मोत्तर ० ( ३।२७३।११-१२ ) ने अपेक्षाकृत अधिक व्यावहारिक मत दिया है कि पैदल तीर्थयात्रा करने से सर्वोच्च तप का फल मिलता है, यदि पान पर यात्रा की जाती है तो केवल स्नान का फल मिलता है। तीर्थप्र० ( पृ० ३५ ) ने गंगासागर जैसे तीर्थों में नौका प्रयोग की अनुमति दी है, क्योंकि वहाँ जाने का कोई अन्य साधन नहीं होता ।
तीर्थयात्रा के लिए प्रस्थान करते समय के संकल्प के लिए त्रिस्थलीसेतु ( पृ० १ - ३) में विशद विवेचन उपस्थित किया गया है । " निष्कर्ष ये हैं- संकल्प में सभी आकांक्षित तीर्थों के नाम नहीं आने चाहिए, किन्तु अन्तिम तीर्थं का नाम स्पष्ट रूप से आना चाहिए; दक्षिण एवं पश्चिम भारत के लोगों को गया के विषय (जिसमें प्रयाग एवं काशी के नाम प्रच्छन्न रहते हैं) में; पूर्वी भारत के लोगों को प्रयाग के विषय (यहाँ गया एवं काशी के नाम अन्तहित रहते हैं) में संकल्प करना चाहिए; दूसरे रूप में, दक्षिण एवं पश्चिम के लोगों को सर्वप्रथम प्रयागतीर्थं का संकल्प करना चाहिए, प्रयाग में काशी का एवं काशी में गया का संकल्प करना चाहिए और इसी प्रकार पूर्व के लोगों को सर्वप्रथम गया का, तब गया में काशी का संकल्प करना चाहिए, और यही विधि आगे चलती जाती है। तीर्थप्रकाश ( पृ० ३२६) ने प्रथम विधि की आलोचना की है और कहा है कि जो लोग बहुत-से तीर्थों की यात्रा करना चाहते हैं उन्हें केवल 'तीर्थयात्रामहं करिष्ये' कहना चाहिए। किन्तु इसने दूसरी विधि का अनुमोदन किया है ।
स्मृतियों एवं पुराणों ने व्यवस्था दी है कि तीर्थयात्राफल प्रतिनिधि रूप से भी प्राप्त किया जा सकता है। अत्र (५०-५१ ) ने कहा है - वह, जिसके लिए कुश की आकृति तीर्थजल में डुबोयी जाती है, स्वयं जाकर स्नान करने के फल का अष्टभाग पाता है । जो व्यक्ति माता, पिता, मित्र या गुरु को उद्देश्य करके ( तीर्थजल में ) स्नान करता है, उससे वे लोग द्वादशांश फल पाते हैं । पैठीनसि ( तीर्थकल्प ०, पृ० ११) का कथन है कि जो दूसरे के लिए ( पारिश्रमिक पर) तीर्थयात्रा करता हैं उसे षोडशांश फल प्राप्त होता है और जो अन्य प्रसंग से ( अध्ययन, व्यापार, गुरुदर्शन आदि के लिए) तीर्थ को जाता है वह अर्धाशि फल पाता है । देखिए प्राय० तत्त्व ( पृ० ४९२), तीर्थप्र० ( पृष्ठ ३६ ), स्कन्द ० ( काशी०, ६०६३), पद्म० ( ६ । २३७/४३ ) एवं विष्णुधर्मोत्तर ० ( ३।२७३|१० ) । इसी लिए परमात्मा की कृपा की प्राप्ति के लिए धनिक लोगों ने (यात्रियों की सुख-सुविधा के लिए) धर्मशालाओं, जलाशयों, अन्नसत्रों, कूपों का
५५. गोयाने गोवधः प्रोक्तो हय्याने तु निष्कलम् । नरयाने तदर्थं स्यात् पद्द्भ्यां तच्च चतुर्गुणम् ॥ गंगाभक्तितरंगिणी ( पृ० १३ ) ; तीर्थचि० एवं तीर्थप्र० । 'उपानद्द्भ्यां चतुर्थांशं गोयाने गोवधादिकम् ।' पद्म० (४॥१९-२७ )। ५६. वर्षातपादिके छत्री दण्डी रात्र्यटवीषु च । शरीरत्राणकामो वै सोपानत्कः सवा व्रजेत् ।। इति विष्णुपुराणीयवचनेन निष्प्रतिपक्ष सदाशब्दस्वरसात् तीर्थयात्रायामपि उपानत्परिधानमावश्यकमिति । तीर्थ चि० (१० ८- ९ ) । देखिए विष्णुपुराण (३।१२।३८) एवं नारदीयपुराण ( उत्तर, ६२।३५ ) । विष्णुधर्मोत्तरपुराण (३।२७३ | ११-१२) में आया है -- तीर्थानुसरणं पद्भ्यां तपः परमिहोच्यते । तदेव कृत्वा यानेन स्नानमात्रफलं लभेत् ॥
५७. संकल्प इस प्रकार का हो सकता है--' ओं तत्सदद्य प्रतिपदमश्वमेघ यज्ञ जन्यफलसमफलप्राप्तिकामोऽमुकतीर्थयात्रामहं करिष्ये ।'
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