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धर्मशास्त्र का इतिहास तीर्थयात्रा करते समय मुण्डन कराने के विषय में निबन्धकारों में ऐकमत्य नहीं है। पद्म० एवं स्कन्द० ने इसे अनिवार्य माना है।" तीर्थकल्प० (पृ० ११) ने शिरमुण्डन की चर्चा ही नहीं की है और उपवास को वैकल्पिक ठहराया है। पश्चात्कालीन निबन्धों ने सामान्यतः धार्मिक कृत्यों को अति विस्तृत एवं दुष्कर बना डाला है। चातु
स्यि एवं अग्निष्टोम जैसे वैदिक यज्ञों के लिए यजमान को दाढी-मंछ बनवा लेने की व्यवस्था दी गयी है (शतपथ ब्राह्मण, १६।३।१४)। समावर्तन के समय भी मण्डन की व्यवस्था थी। पापों से मक्ति पाने के लिए किये जाने
यश्चित्तों में भी मण्डन किया जाता था (देखिए इस खण्ड का अध्याय ४)। तीर्थचिन्तामणि एवं तीर्थप्रकाश ने स्मृतिसमुच्चय से विष्णु का एक श्लोक उद्धृत किया है-प्रयाग में, तीर्थयात्रा पर, माता या पिता की मृत्यु पर बाल कटाने चाहिए, किन्तु अकारण नहीं। मिता० (याज्ञ० ३।१७) ने एक श्लोक उद्धृत किया है-'गंगा पर, भास्करक्षेत्र में, माता, पिता या गुरु की मृत्यु पर, वैदिक अग्निहोत्र प्रारम्भ करते समय एवं सोमयज्ञ में--इन सात अवसरों या स्थानों में मुण्डन करना चाहिए।' तीर्थचि० एवं तीर्थप्र० ने एक श्लोक उद्धृत किया है--कुरुक्षेत्र, विशाला (उज्जयिनी या बदरिका), विरजा (उड़ीसा की एक नदी) एवं गया को छोड़कर सभी तीर्थों में मुण्डन एवं उपवास के कृत्य अवश्य करने चाहिए। इस विषय में स्नातक को शिखा छोड़कर सारे केश कटाने चाहिए और सधवा नारी को केवल दो अंगुल की लंबाई में केशों का अग्रभाग कटाना चाहिए। वृद्ध हारीत (९।३८६-३८७) ने व्यवस्था दी है कि सधवा नारियों को केश नहीं कटाने चाहिए, केवल सभी बालों को उठाकर उनका तीन अंगल लंबा अग्रभाग कटा लेना चाहिए।
'कार्पटीवेषः ताम्रमदाताम्रकंकणकाषायवस्त्रधारणमा तीर्थचिन्तामणि में आया है कि यद्यपि ये आवश्यकताएँ गयायात्रा के विषय में वर्णित हैं, किन्तु ये सभी तीर्थों के लिए उपयुक्त हैं। यह भी ज्ञातव्य है कि कार्यटिक का धारण यात्रा में ही होता है न कि उस समय जब कि व्यक्ति अपने दैनिक कृत्य करता रहता है या खाता रहता है या श्राद्ध का सम्पादन करता रहता है।
४८. तीर्थोपवासः कर्तव्यः शिरसो मुण्डनं तथा। शिरोगतानि पापानि यान्ति मुण्डनतो यतः ॥ पन० (उत्तर०, २३७।४५) एवं स्कन्द० (काशीखण्ड, ६६५)।
४९. पारस्करगृ० (२।६।१७), खादिरगृ० (३।१।२।२३), शांखायनगृ० (३।१।१-२) । खादिरगृ० में आया है-'प्राश्य वापयेत् शिखावज केशश्मश्रुलोमनखानि।'
५०. मनुष्याणां तु पापानि तीर्यानि प्रतिगच्छताम् । केशानाश्रित्य तिष्ठन्ति तस्मात्तद्वपनं चरेत् ॥ पप० (पाताल०, १९।२१)। उपवासदिने मुण्डनमपि । प्रयागे तीर्थयात्रायां पितृमातृवियोगतः। कचानां वपनं कुर्याद वृथा न विकचो भवेत् ॥ इति स्मृतिसमुच्चय धृतविष्णुलिखितवचनात् । तीर्यचि० (पृ० ७) एवं तीर्थप्र० (पृ० २८)। यह श्लोक नारदीय० (उत्तर, ६२।२८) का है। मिता० (याज्ञ० ३॥१७) ने उद्धृत किया है--'गंगायो भास्करक्षेत्रे मातापित्रोगु रोमतो। आधानकाले सोमे च वपनं सप्तसु स्मृतम् ॥' कुछ लोगों के मत से भास्करक्षेत्र प्रयाग है और कुछ लोगों के मत से वह कोणार्क है। धर्मशास्त्र ग्रन्यों में आधान सामान्यतः अग्न्याधान है। गर्भाधान को निषेक या गर्भाधान ही कहा जाता है, अतः आषान को अग्न्याधान हो कहना चाहिए। भास्करक्षेत्र कोणार्क है न कि प्रयाग। मत्स्य. (१०४।५ एवं १११११४) ने प्रयाग को प्रजापतिक्षेत्र कहा है।
५१. मुण्डनं चोपवासश्च सर्वतीर्येष्वये विधिः । वर्जयित्वा कुरुक्षेत्र विशाला विरजां गयाम् ॥ वायु० (१०५। २५)। इसे तीर्थचि० (१० १४) ने स्कन्दपुराण का माना है और तीर्थप्र० (५० ५०) ने देवल एवं स्कन्द० का। और देखिए तीर्थचि० (१०३२),बालम्भट्टी (यान. ३३१७), अग्नि० (११५।७) एवं नारदीय० (उत्तर ६२।४५)।
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