________________
१३०८
धर्मशास्त्र का इतिहास तप एवं दान कलियुग में भले प्रकार से सम्पादित नहीं हो सकते; किन्तु गंगा-स्नान एवं हरिनाम-स्मरण सभी प्रकार के दोषों से मुक्त हैं।' विष्णुधर्मोत्तर० (३।२७३१७ एवं ९) ने बहुत ही स्पष्ट कहा है-'जब तीर्थयात्रा की जाती है तो पापी के पाप कटते हैं, सज्जन की धर्मवृद्धि होती है। सभी वर्गों एवं आश्रमों के लोगों को तीर्थ फल देता है।
कुछ पुराणों (यथा-स्कन्द०, काशीखण्ड ६; पद्म०, उत्तरखण्ड २३७) का कथन है कि भूमि के तीर्थो (भौम सीयों) के अतिरिक्त कुछ ऐसे सदाचार एवं सुन्दर शील-आचार भी हैं जिन्हें (आलंकारिक रूप से) मानस तीर्थ कहा जाता है। उनके अनुसार 'सत्य, क्षमा, इन्द्रियसंयम, दया (सभी प्राणियों के प्रति), ऋजता, दान, आत्मनिग्रह, सन्तोष, ब्रह्मचर्य, मृदुवाणी, ज्ञान,धैर्य और तप तीर्थ हैं और सर्वोच्च तीर्थ मनःशुद्धि है।' उनमें यह भी आया है कि जो लोभी, दुष्ट, कर, प्रवञ्चक, कपटाचारी, विषयासक्त हैं, वे सभी तीर्थों में स्नान करने के उपरान्त भी पापी एवं अपवित्र रहते हैं। क्योंकि मछलियां जल में जन्म लेती हैं, वहीं मर जाती हैं और स्वर्ग को नहीं जातीं, क्योंकि उनके मन पवित्र नहीं होते-यदि मन शुद्ध नहीं है तो दान, यज्ञ, तप, स्वच्छता, तीर्थयात्रा एवं विद्या को तीर्थ का पद नहीं प्राप्त हो सकता।" ब्रह्मपुराण (२५।४-६) का कथन है कि जो दुष्टहृदय है वह तीर्थों में स्नान करने से शुद्ध नहीं हो सकता; जिस प्रकार वह पात्र जिसमें सुरा रखी गयी थी, सैकड़ों बार धोने से भी अपवित्र रहता है, उसी प्रकार तीर्थ, दान, व्रत, आश्रम (में निवास) उस व्यक्ति को पवित्र नहीं करते, जिसका हृदय दुष्ट रहता है, जो कपटी होता है और जिसकी इन्द्रियाँ बसंयमित रहती हैं। जितेन्द्रिय जहाँ भी कहीं रहे, वहीं कुरुक्षेत्र, प्रयाग एवं पुष्कर हैं। वामनपुराण (४३।२५) में एक सुन्दर रूपक आया है-आत्मा संयमरूपी जल से पूर्ण नदी है, जो सत्य से प्रवहमान है, जिसका शील ही तट है और जिसकी लहरें दया है। उसी में गोता लगाना चाहिए, अन्तःकरण जल से स्वच्छ नहीं होता।" पम० (२।३९।५६-६१) ने तीर्थों के अर्थ एवं परिधि को विस्तृत कर दिया है जहाँ अग्निहोत्र एवं श्राद्ध होता है, मन्दिर, वह घर जहां वैदिक अध्ययन होता है, गोशाला, वह स्थान जहाँ सोम पीनेवाला रहता है, वाटिकाएँ, जहाँ अश्वत्थ वृक्ष रहता है, जहाँ पुराण-पाठ होता है या जहाँ किसी का गुरु रहता है या पतिवता स्त्री रहती है या जहां पिता एवं योग्य पुत्र का निवास होता है-वे सभी स्थान (तीर्थ जैसे) पवित्र हैं।
अति प्राचीन काल से बहुत-से तीर्थों एवं पुनीत धार्मिक स्थलों का उल्लेख होता आया है। मत्स्य० (११०।७), मारदीय. (उत्तर, ६३१५३-५४) एवं पद्म० (४।८९।१६-१७ एवं ५।२०।१५०), वराह० (१५९१६-७), ब्रह्म० (२५१७-८ एवं १७५।८३)आदि में तीर्थों की संख्याएँ दी गयी हैं। मत्स्य० का कथन है कि वायु ने घोषित किया है कि ३५ कोटि तीर्थ हैं जो आकाश, अन्तरिक्ष एवं भूमि में पाये जाते हैं और सभी गंगा में अवस्थित माने जाते हैं। 'वामन० (४६।५३) का कथन है कि ३५ करोड़ लिंग हैं। ब्रह्म० (२५।७-८) का कहना है कि तीर्थों एवं पुनीत धार्मिक
२९. पापानां पापशमनं धर्मवृद्धिस्तथा सताम् । विज्ञेयं सेवितं तीर्थ तस्मात्तीर्थपरो भवेत् ॥ सर्वेषामेव वर्णानां सर्वाश्रमनिवासिनाम् । तीर्थ फलप्रदं ज्ञेयं नात्र कार्या विचारणा॥ विष्णुधर्मोत्तरपुराण (३।२७३।७ एवं ९)।
३०. सत्यं तीर्थ क्षमा तोयं ...तीर्थानामुत्तमं तीर्थ विशुद्धिर्मनसः पुनः॥... जायन्ते च म्रियन्ते च जलेष्वेव जलौकसः। न च गच्छन्ति ते स्वर्गमविशुद्धमनोमलाः॥....दानमिज्या तपः शौचं तीर्थसेवा श्रुतं तथा। सण्येितान्यतीर्थानि यदि भावो न निर्मलः ॥ स्कन्द० (काशीखण्ड, ६।२८-४५); पम० (उत्तरखंड, २३७।११-२८)। मिलाइए मत्स्व० (२२६८०--सस्यं तीयं दया तीर्थम् ....)।
३१. आत्मा नवी संयमतोयपूर्णा सत्यावहा शीलतटा वयोनिः। तत्राभिषेकं कुरु पाण्डुपुत्र न वारिणा शुध्यति पान्तरात्मा ॥वामनपुराण (४३।२५)।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org