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तीर्थ-फल के लिए भादना-शुद्धि एवं संयम की मुख्यता
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कर सकता है। जो प्रतिग्रह (दान ग्रहण आदि) से दूर रहता है, जो कुछ मिल जाय उससे सन्तुष्ट रहता है एवं अहंकार से रहित है, वह तीर्थफल प्राप्त करता है। जो अकल्कक (प्रवञ्चना या कपटाचरण से दूर) है, निरारम्भ है (अर्थात् धन कमाने के लिए भाँति-भांति के उद्योगों से निवृत्त है), लघ्वाहारी (कम खानेवाला) है, जितेन्द्रिय है अर्थात् जो अपनी इन्द्रियों के संयम द्वारा पापकर्मों से दूर रहता है, और वह भी जो अक्रोधी है, सत्यशील है, दृढव्रती है, अपने समान ही अन्यों को जानने-मानने वाला है, वह तीर्थयात्राओं से पूर्ण फल प्राप्त करता है। इसका तात्पर्य यह है कि जिन्हें ये विशेषताएँ नहीं प्राप्त हैं वे तीर्थयात्रा द्वारा पापों का नाश कर सकते हैं किन्तु जो इन गुणों से युक्त हैं वे और भी अधिक पुण्यफल प्राप्त करते हैं। स्कन्द० (काशीखण्ड ६।३)ने दृढतापूर्वक कहा है--'जिसका शरीर जल से सिक्त है उसे केवल इतने से ही स्नान किया हुआ नहीं कह सकते ; जो इन्द्रियसंयम से सिक्त है (अर्थात् उसमें डूबा हुआ है), जो पुनीत है, सभी प्रकार के दोषों से मुक्त एवं कलंकरहित है, केवल वही स्नात (स्नान किया हुआ) कहा जा सकता है।' यही बात अनुशासनपर्व (१०८१९) में भी कही गयी है।" वायुपुराण में आया है-'पापकर्म कर लेने पर यदि धीर (दढसंकल्प या बुद्धिमान्), श्रद्धावान एवं जितेन्द्रिय व्यक्ति तीर्थयात्रा करने से शुद्ध हो जाता है, तो उसके विषय में क्या कहना जिसके कर्म शुद्ध हैं ? किंतु जो अश्रद्धावान् है, पापी है, नास्तिक है, संशयात्मा है (अर्थात् तीर्थयात्रा के फलों एवं वहाँ के कृत्यों के प्रति संशय रखता है) और जो हेतुद्रष्टा (व्यर्थ के तर्कों में लगा हुआ) है ये पाँचों तीर्थफलभागी नहीं होते। २८ स्कन्द० (१।१।३१।३७) का कथन है कि पुनीत स्थान (तीर्थ), यज्ञ एवं भाँतिभांति के दान मन की शद्धि के साधन हैं.(अर्थात् इनसे पाप कटते हैं)। पद्म० (४१८०१९) में आया है-'यज्ञ, व्रत,
२६. यस्य हस्तौ च पादौ च मनश्चैव सुसंयतम् । विद्या तपश्च कीर्तिश्च स तीर्थफलमश्नुते ॥ परिग्रहादुपावृत्तः सन्तुष्टो येन केनचित् । अहंकारनिवृत्तश्च स तीर्थफलमश्नुते ॥ अकल्कको निरारम्भो लध्वाहारो जितेन्द्रियः । विमुक्तः सर्वपापेभ्यः स तीर्थफलमश्नुतं ।। अक्रोधनश्च राजेन्द्र सत्यशीलो दृढव्रतः । आत्मोपमश्च भूतेषु स तीर्थफलमश्नुते ॥ वनपर्व (८२।९-१२); तीर्थकल्पतरु (पृ० ४-५); तीर्थप्रकाश (पृ०१३) । हस्तयोः संयमः परपीडा-चौर्यादिनिवृत्त्या, पादयोः संयमः अगम्यदेशगमनपरताडनादिनिवृत्या, मनसः संयमः कुत्सितसंकल्पादिनिवृत्त्या। विद्या अत्र ततत्तीर्थगुणज्ञानम्, तपः तीर्थोपवासादि, कीर्तिः सच्चरितरवेन प्रसिद्धिः। तीर्थप्रकाश (पृ० १३)। अकल्ककः दम्भरहितः, निरारम्भोऽत्रार्थार्जनादिव्यापाररहितः । तीर्थकल्पतरु (पृ०५)। और देखिए वनपर्व (९२।११ एवं ९३।२०-२३)। ये वनपर्व के श्लोक पप० (आदिखण्ड, ११।९-१२) में पाये जाते हैं। प्रथम दो पद्म० (उत्तरखण्ड, २३७।३.१२) म आये हैं; सभी स्कन्द० (काशीखण्ड, ६।४८-५१) में उद्धृत हैं; वायु० (११०-४-५) के दो पद्य प्रथम दो के समान है। 'यस्य हस्तौ च' नामक श्लोक शंखस्मृति (८.१५), ब्रह्म० (२५।२) एवं अग्नि० (१०९।१-२) में भी पाया जाता है। स्कन्द० (१।२।२।५-६) के मत से 'यस्य....संयतम् । निर्विकाराः क्रियाः सर्वाः स ....श्नुते' वाली गाथा अंगिरा ने गायी है।
२७. नोवकक्लिनगावस्तु स्नात इत्यभिधीयते। स स्नातो यो दमस्नातः स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः ॥ अनुशासन० (१०८९)।
२८. तीर्थान्यनुसरन् धीरः श्रद्दधानो जितेन्द्रियः । कृतपापो विशुध्येत कि पुनः शुभकर्मकृत् ॥ अश्रद्दधानाः पाप्मानो नास्तिकाः स्थितसंशयाः । हेतुद्रष्टा च पञ्चते न तीर्थफलभागिनः॥ वायु० (७७।१२५ एवं १२७); तीर्थकल्प० (पृ० ५-६); गचस्पतिकृत तोचिन्तामणि (पृ० ४), जिसमें आया है-पापात्मा बहुपापग्रस्तस्तस्य पापशमनं तीर्थ भवति न तु यथोक्तफलम् ।ये श्लोक स्कन्द० (काशीखण्ड, ५६५२-५३) में भी आये हैं।
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