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मृत के लिए गोदान; मलमास में धारात्य का विचार
१२९५ पात्र भी दिया जाता है। उसने यह भी कहा है कि ऐसे दान से न केवल दाता को परलोक में रक्षा मिलती है, प्रत्युत उसके पुत्रों , प्रपौत्रों एवं कुल की सात पीढ़ियों तक की रक्षा होती है। और देखिए अनुशासनपर्व (७७।१०) जहाँ सभी गायों में सर्वश्रेष्ठ कपिला गाय के विषय में एक जनश्रुति कही गयी है।
पुराणों एवं निबन्धों ने तीर्थों एवं गया में किये जानेवाले श्राद्धों के विषय में विस्तार के साथ लिखा है। देखिए अत्रि (५५-५८), वायु० (८३।१६-४२), हेमाद्रि (श्रा०, पृ० १५६८ एवं १५७५) । इस विषय में हम आगे तीर्थों के प्रकरणों में लिखेंगे।
अधिक मास या मलमास में श्राद्धों का सम्पादन होना चाहिए या नहीं, इस विषय में बहुत कुछ कहा गया है। यह मास कई नामों से प्रसिद्ध है, यथा-मलिम्लुच (काठकसंहिता ३८।१४), संसर्प या अंहसस्पात (वाज० सं० ७।३० एवं २२।३१), मलमास, अधिमास । ऋ० (१।२५।८) में भी यह विदित था। ऐतरेय ब्राह्मण (३।१) में सोमविक्रेता एवं तेरहवें मास को पाप के समान गहित माना गया है। पुराणों ने इस मास का पुरुषोतम मास (विष्णु का मास) कहकर इसे मान्यता देनी चाही, किन्तु तेरहवें मास के साथ जो भावना थी वह चलती आयी है। गृह्यपरिशिष्ट (श्रा० कि० को०,१०३८) ने तेरहवें मास के विषय में एक सामान्य नियम यह दिया है-'मलिम्लच नामक मास मलिन है और इसकी उत्पत्ति पाप से हुई है। सभी कार्यों के लिए यह गर्हित है, देवों एवं पितरों के कृत्यों के लिए यह त्याज्य है।२८ किन्तु इस मत के विरोध में भी बातें आती हैं। हारीत (स्मृति० च०,श्रा० ३७४; श्रा०क्रि० को०, १० ३२३ एवं श्राद्धतत्त्व, प० २५२) ने व्यवस्था दी है कि सपिण्डन के उपरान्त जितने श्राद्ध आते हैं, उनका सम्पादन मलिम्लच में नहीं होना चाहिए। व्यास ने कहा है कि जातकर्म, अन्नप्राशन, नवश्राद्ध, त्रयोदशी एवं भघा के श्राद्ध, षोडश श्राद्ध, स्नान, दान, जप, सूर्य-चन्द्र ग्रहण के समय के कृत्य मलमास में भी किये जाने चाहिए। स्मृतिमुक्ताफल (पृ० ७२८) ने निष्कर्ष निकाला है कि यदि मृत्यु के पश्चात् एक वर्ष व्यतीत होने के पूर्व ही कोई श्राद्ध किया जाय तो उसका मलमास में होना दोष नही है। भृगु (स्मृतिच०, श्रा०, पृ० ३७५) का कथन है कि जो लोग मलमास में मरते हैं उनका सांवत्सरिक श्राद्ध मलमास में ही करना चाहिए, किन्तु यदि कोई ऐसा न हो (अर्थात् मलमास में न मरे) तो उसी नाम वाले साधारण मास में श्राद्ध करना चाहिए। वृद्ध-वसिष्ठ का कथन है कि यदि श्राद्ध की तिथि मलमास में पड़ जाय तो उसका सम्पादन दोनों मासों में करना चाहिए।"
मलमास में क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए, इस पर विचार हम काल के प्रकरण में
२८. मलिम्लुचस्तु मासोवै मलिनः पापसम्भवः । गहितः पितृदेवेभ्यः सर्वकर्मसु तं त्यजेत् ॥गृहापरिशिष्ट (श्रा० कि० को०, पृ० ३८)।
२९. जातकर्मान्त्यकर्माणि नवश्रावं तथैव च। मघात्रयोदशीश्राद्धं श्राधान्यपि च षोडश ॥ चन्द्रसूर्यग्रहे स्नानं श्रावं दानं तया जपः । कार्याणि मलमासेऽपि नित्यं नैमित्तकं तथा व्यास (बाबतत्व, पृ० २८३; स्मृतिच०, श्रा० ३७३)।
३०. मलमासे मृतानां तु श्रावं यत्परिवत्सरम्। मलमासेपि तत्कार्य नान्येषां तु कथंचन ॥ भृगु (स्मृतिच०, श्रा० ३७५) । निर्णयसिन्धु (३, पृ० ४७५) का कथन है-'मलमासमतानां तु यदा स एवाधिकः स्यात्तदा तत्रैव कार्यमन्यथा शुस एव ।'
३१. श्राखोयाहनि सम्प्राप्ते अधिमासो भवेद्यदि । मासद्वयपि कुर्वीत श्रावमेवं न मुह्यति ॥ सवसिष्ठ (स्मृतिच, श्रा०, पृ० ३७५); निर्णयसिन्धु (पृ० १३)।
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