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संघात या क्रमिक श्राद्ध; श्राद्धभोजन, दान आदि न लेनेवाले की प्रशंसा
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कहीं चौथे वर्ष में वह (कुछ) पवित्र होता है। 14 देखिए परा० मा० (जिल्द २, भाग १, पृ० ४२३) जहाँ सांवत्सरिक १३५ श्राद्ध के साथ अन्य श्राद्धों में भोजन करने पर प्रायश्चित्तों का उल्लेख किया गया है। हारीत का कथन है--'नव श्राद्ध भोजन करने पर चान्द्रायण व्रत करना चाहिए। मासिकश्राद्ध भोजन करने से प्राजापत्य व्रत एवं प्रात्यब्दिक श्राद्ध में खाने से एक दिन का उपवास करना चाहिए।' यह उसी प्रकार है जैसा कि दान लेने पर होता है । दाता को दान देने पर कल्याण मिलता है, किन्तु दान लेनेवाले को दान लेना चाहिए कि नहीं; यह उसे ही तय करना होता है । ब्राह्मणों के समक्ष यह आदर्श उपस्थित किया गया है कि वैदिक विद्या एवं ज्ञान प्राप्त करने पर एवं तप साधन करने पर वे दान ग्रहण के अधिकारी तो हो जाते हैं, किन्तु यदि व सर्वोच्च लोक की प्राप्ति चाहते हैं तो उन्हें दान नहीं लेना चाहिए (याज्ञ० १।२१३ ) । मनु (४।१८६ ) का भी कथन है कि दान लेने का अधिकारी होने पर भी ब्राह्मण को बार-बार वैसा नहीं करना चाहिए, क्योंकि वैदिक अध्ययन से उसे जो अलौकिक गुण प्राप्त हो जाते हैं वे दानग्रहण से नष्ट हो जाते हैं। " मनु (४।८५-८६ = पद्म० ५।१९।२३६-२३७ ) का कथन है कि राजा का दान लेना घोर (अर्थात् प्रतिफल में भयानक ) है और पद्म० (५।१९।२३५) ने सावधान किया है कि ग्रहण करने में दान मधु के समान मीठा लगता है किन्तु ( फल में) यह विष के समान है। यह तर्क पौरोहित्य कार्य एवं श्राद्ध भोजन करने के संबंध में अधिक बल से प्रयुक्त किया जाता है, जहाँ न केवल दान मिलते हैं प्रत्युत छककर खाने के लिए स्वादिष्ठ भोजन भी मिलता है। हमने ऊपर देख लिया है कि अत्यन्त प्राचीन साहित्यिक ग्रन्थ ऋग्वेद में आया है कि मृत्यु हो जाने के तुरन्त बाद ही की जानेवाली अन्त्येष्टि-क्रियाएँ मृत व्यक्ति के प्रति व्यक्त श्रद्धा एवं कुछ सीमा तक भय की द्योतक हैं। इन क्रियाओं के अन्तर्गत मृत व्यक्ति के लिए व्यवस्था होती है और पितर हो जाने के पूर्व उसे एक बीच (मध्य) का शरीर दिया जाता है। हमने यह भी देख लिया है कि अत्यन्त प्राचीन काल में, जहाँ तक हमें साहित्यिक प्रमाण मिल पाते हैं, पूर्वपुरुषों की पूजा के लिए कई कृत्य होते थे, यथा-- प्रत्येक मास की अमावास्या को किया जानेवाला पिण्डपितृयज्ञ तथा शाकमेध एवं अष्टकाश्राद्धों में किया जानेवाला महापितृयज्ञ । क्रमशः पितरों के कृत्य अधिक विस्तार के साथ किये जाने लगे और श्राद्ध-भावना के प्रति अतिशय महत्त्व दिखाया जाने लगा एवं अधिक समय, प्रयत्न एवं धन का व्यय होने लग गया ।
अब प्रश्न यह है कि बीसवीं शताब्दी में श्राद्धों के विषय में क्या किया जाना चाहिए। यह देखने में आता है। कि आजकल बहुत से ब्राह्मण पञ्चमहायज्ञ (जो प्रति दिन किये जाने चाहिए ) भी नहीं करते, किंतु वे अपने पितरों के लिए कम-से-कम प्रति वर्ष श्राद्ध करते हैं। निम्न बात सभी प्रकार के लोगों के लिए कही जा सकती है, और यह मध्यम
३५. अथ शुद्धश्राद्धं दिवोदासीयें । सपिण्डीकरणादूध्वं यावदन्दत्रयं भवेत् । तावदेव न भोक्तव्यं क्षयेऽहनि कदाचन... प्रथम स्थीनि मज्जा च द्वितीये मांसभक्षणम् । तृतीयें रुधिरं प्रोक्तं श्राद्धं शुद्धं चतुर्थकमिति श्राद्ध कारिकोक्तेः ॥ निर्णयसिन्धु ( ३, पृ० ४७५ ) । चान्द्रायणं नवश्राद्धे प्राजापत्यं तु मिश्रके । एकाहं तु पुराणेषु प्रायश्चित्तं विधीयते ॥ हारीत ( परा० मा०, २१, पृ० ४२३) । स्मृतियों के अन्य नियमों के लिए देखिए रुद्रधरकृत श्राद्ध विवेक ( पृ० ११३ ) एवं श्रा० क्रि० कौ० (१०३४५) । पद्म० ( ५/१०/१९ ) का कथन है- 'नवश्राद्धे न भोक्तव्यं भुक्त्वा चान्द्रायणं चरेत्' । ३६. प्रतिग्रहसमर्थोऽपि प्रसंगं तत्र वर्जयेत् । प्रतिग्रहेण ह्यस्याशु ब्राह्म तेजः प्रशाम्यति । मनु ( ४ । १८६ ) । और देखिए इसी प्रकार के श्लोक के लिए पद्म० (४।१९।२६८) । राजन् प्रतिग्रहो घोरो मध्वास्वादो विषोपमः । तद् ज्ञायमानः कस्मात्त्वं कुरुषेऽस्मत्प्रलोभनम् ॥ दशसूनासमश्चक्री तेन तुल्यस्ततो राजा घोरस्तस्य प्रतिग्रहः ॥ पद्म०
(५।१९।२३५) ।
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