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धर्मशास्त्र का इतिहास इसके उपरान्त बन्द कर देना चाहिए। यदि वह स्वयं ऐसा न कर सके तो उसका पुत्र या अन्य कोई सम्बन्धी ऐसा कर सकता है। इस संबन्ध में निम्न वाक्य भी उद्धृत किया जाता है--उत्तराधिकारियों के रहते हुए भी जीवितावस्था में कोई अपना श्राद्ध कर सकता है और ऐसा वह नियमों के अनुसार तुरंत सब कुछ उपस्थित करके कर सकता है। किन्तु सपिण्डन नहीं कर सकता। जैसा कि ऊपर तिथि के विषय में दिया हुआ है, किसी को देरी नहीं करनी चाहिए, क्योंकि जीवन क्षणभंगुर होता है।"
यह ज्ञातव्य है कि बौ० गृह्यशेषसूत्र (३।२२) में जीव-भाव की विधि बहुत ही संक्षिप्त है, किन्तु उसमें कण्व के दो श्लोक एवं विष्णु का एक श्लोक उद्धृत है। लगता है, ये क्षेपक हैं, अर्थात् आगे चलकर जोड़े गये हैं। श्रा० प्र० (पृ० ३६१-३६३) ने बी० गृह्यशेषसूत्र (३।१९) उद्धृत किया है। इसने लिंगपुराण को भी उद्धृत कर व्याख्यात किया है (पृ० ३६३-३६८) । लिंगपुराण की विधि बौधायन की विधि से सर्वथा भिन्न है, किन्तु स्थानाभाव से हम इसका उल्लेख नहीं करेंगे। श्राद्धमयूख ने भी विशद वर्णन उपस्थित किया है। इसकी दो-एक बातें दे दी जा रही हैं। 'जीव-श्राद्ध में प्रेत शब्द का प्रयोग कहीं भी नहीं होना चाहिए । व्यक्ति की आकृति ५० कुशों से निर्मित होती है और दूसरे व्यक्ति द्वारा 'ऋव्यादमग्निम्' (ऋ०१०।१६।९) मन्त्र के साथ जलायी जाती है। व्यक्ति को अपनी गृह्य अग्नि या लौकिक अग्नि से दक्षिणाभिमुख हो किसी नदी के तट पर अग्नि जलानी चाहिए, वहाँ कोई गड्ढा खोदना चाहिए और पृथिवी से प्रार्थना करनी चाहिए; यह सब उसी प्रकार किया जाना चाहिए जैसा कि वास्तविक मृत्यु पर किया जाता है।' बम्बई विश्वविद्यालय के भडकमकर संग्रह में एक शौनककृत पाण्डुलिपि है जिसमें गद्य में जो जीवश्राद्ध का वर्णन है वह बौधायन से भी विशद है। इसमें बौधायन की बहुत-सी व्यवस्थाएँ उल्लिखित हैं। अन्य विस्तार यहाँ छोड़ दिये जा रहे हैं।
जीवितावस्था में श्राद्ध की व्यवस्था श्राद्ध-सम्बन्धी प्राचीन विचारधारा का विलोमत्व मात्र है। मौलिक एवं तात्विक श्राद्ध-सम्बन्धी धारणा मृत पूर्वपुरुषों की आत्मा को सन्तोष देना था। आगे चलकर लोग हतज्ञान एवं भ्रान्तचित्त हो गये और इस श्राद्ध को भी मान्यता दे बैठे ! आजकल भी कुछ लोगों ने यह श्राद्ध किया है, यद्यपि उनके पुत्र, भाई एवं भतीजे आदि जीवित रहे हैं और उन्होंने उनकी मृत्यु के उपरान्त उनके श्राद्ध भी किये हैं।
आशौचावधि के उपरान्त दूसरे दिन किसी ब्राह्मण को बछड़े के साथ गाय का, और वह भी यथासम्भव कपिला गाय का दान करना एक परम्परा-सी रही है। बहुधा केवल यही गाय दी जाती है, और बैतरणी गाय किसी प्रिय या सन्निकट के सम्बन्धी की मृत्यु के तुरन्त पश्चात् दुःख एवं रुदन के बीच बहत कम दी जाती है। पहले गोदान करने की घोषणा कर दी जाती है और तब किसी ब्राह्मण के हाथ पर जल ढारा जाता है। तब हाथ में कुश लेकर दाता नीचे पाद-टिप्पणी में लिखित वचन के साथ गोदान करता है। दान लेनेवाला 'ओं स्वस्ति' (हाँ, यह अच्छा हो) द्वारा उत्तर देता है। तब सोने या चांदी के सिक्कों में दक्षिणा दी जाती है और ब्राह्मण कहता है 'ओं स्वस्ति', गाय की पूंछ पकड़ता है और अपने अधीत वेद की शाखा के अनुरूप कामस्तुति करता है (अथर्ववेद ३।२९।७; ते० प्रा० २।२।५।९ एवं ते० आ० ३।१०)। अनुशासनपर्व (५७।२८-२९) उस गोदान की प्रशंसा करता है, जिसमें बछड़े के सहित कपिला गाय दी जाती है, जिसके सींगों के ऊपरी भाग सोने से अलंकृत रहते हैं और जिसके साथ कॉस का बना दुग्ध
२७. ओम् । अद्याशौचान्ते द्वितीयहि अमुकगोत्रस्य पितुरमुकप्रेतस्य स्वर्गप्राप्तिकामः इमां कपिला गां हेमशृंगी रौप्यखुरा वस्त्रयुगच्छन्ना कांस्योपदोहा मुक्तालांगूलभूषितां सवत्सां देवत्याममुकगोत्रायामुकशर्मणे ब्राह्मणाय तुभ्यमहं संप्रवदे । वषर का श्रादविवेक (पृ०७७)।
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