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आम्युदयिक, वृद्धि या नान्दीमुख भाद्ध
१२८५ मातृश्राद्ध नहीं सम्पादित होता। यह सम्भव है कि अन्वष्टक्य श्राद्ध से ही प्रभावित होकर माता, पितामह एवं प्रपितामह के लिए श्राद्ध किया जाने लगा, जैसा कि आश्व० गृ० (२।५।११३-५) से प्रकट होता है।
'नान्दीश्राद्ध' एवं 'वृद्धिश्राद्ध' शब्द पर्यायवाची हैं। जब याज्ञ० (१।२५०) में ऐसा कथन है कि वृद्धि (शुभावसर, यथा पुत्रोत्पत्ति) के अवसर पर नान्दीमुख पितरों को पिण्डों से पूजित करना चाहिए, तो इसका संकेत है कि नान्दीश्राद्ध एवं वृद्धिश्राद्ध दोनों समान ही हैं । मिता० (याज्ञ० ११२५०) ने शातातप को उद्धृत करते हुए इस श्राद्ध के तीन भाग किये हैं, यथा-मातृश्राद्ध, पितृश्राद्ध एवं मातामहश्राद्ध। दूसरी ओर भविष्यपुराण (२१८५।१५) ने कहा है कि इसमें दो श्राद्ध होते हैं, यथा-मातश्राद्ध एवं नान्दीमख पितश्राद्ध। पद्म० (सष्टि० ९।१९४) आदि ग्रन्थों में आभ्युदयिक श्राद्ध एवं वृद्धिश्राद्ध को समान माना गया है, किन्तु प्रथम दूसरे से अधिक विस्तृत है, क्योंकि इसका सम्पादन पूर्त-कर्म के आरम्भ में भी होता है।
विष्णुपुराण (३।१३।२-७), मार्कण्डेय० (२८१४-७), पद्म० (सृष्टिखंड, ९।१९४-१९९), भविष्य० (१।१८५।५-१३), विष्णुधर्मोतर० (१।१४२।१३-१८) ने नान्दीश्राद्ध की पद्धति एवं उसके किये जाने योग्य अवसरों का संक्षेप में उल्लेख किया है। अवसर ये हैं-कन्या एवं पुत्र के विवाहोत्सव पर, नये गृह-प्रवेश पर, नामकरण-संस्कार पर, चूडाकरण पर, सीमन्तोन्नयन में, पुत्रोत्पत्ति पर, पुत्रादि के मुख-दर्शन पर गृहस्थ को नान्दीमुख पितरों का सम्मान करना चाहिए।" मार्कण्डेय० (२८१६) ने टिप्पणी की है कि कुछ लोगों के मत से इस श्राद्ध में वैश्वदेव ब्राह्मण नहीं होने चाहिए, किन्तु पद्म० (सृष्टि ० ९।१९५) का कथन है कि इस वृद्धिश्राद्ध में सर्वप्रथम माताओं का सम्मान होना चाहिए, तब पिताओं, मातामहों एवं विश्वेदेवों का । हेमाद्रि (श्रा०, पृ० १०७) ने ब्रह्मपुराण के दो श्लोक उद्धृत करते हुए कहा है कि पिता, पितामह एवं प्रपितामह अथुमुख पितर कहे जाते हैं, और प्रपितामह से पूर्व के तीन पितर लोग नान्दीमुख कहे जाते हैं।" कल्पतरु (श्रा०, पृ० २७०) ने इन श्लोकों से अर्थ निकाला है कि जब कर्ता के तीनों पूर्वज जीवित हों और कोई शुभ अवसर हो तो प्रपितामह से पूर्व के तीन पूर्वज नान्दीश्राद्ध के लिए देवता होंगे। भविष्य ने टिप्पणी की है कि कुलाचार के अनुसार कुछ लोग वृद्धिश्राद्ध में पिण्ड नहीं देते।५।।
'मातरः' शब्द के दो अर्थ हैं। गोभिलस्मृति (१।१३) ने व्यवस्था दी है कि सभी कृत्यों के आरम्भ में गणेश के साथ माताओं की पूजा होती है और १४ माताओं में कुछ हैं गौरी, पद्मा, शची (१।११-१२)।६ इस विषय में
१२. अपरेधुरन्वष्टक्यम्।....पिण्डपितृयज्ञे कल्पेन । हुत्वा मधुमन्यवर्ज पितृभ्यो दद्यात् । स्त्रीम्यश्च सुरा चाचाममित्यधिकम् । आश्व० गु० (२।५।१, ३-५)।
१३. कन्यापुत्रविवाहेषु प्रवेशे नववेश्मनि । नामकर्मणि बालानां चूडाकर्मादिके तथा ॥ सीमन्तोन्नयने चैव पुत्रादिमुखदर्शने ॥ नान्दीमुखं पितृगणं पूजयेत् प्रयतो गृही। पितृपूजाविधिः प्रोक्तो वृद्धावेष समासतः ॥ विष्णुपुराण (३।१३। ५-७)। इसे अपरार्क (पृ० ५१५) ने उवृत किया है (अन्तिम पाद छोड़कर)। .
१४. पिता पितामहश्चव तथैव प्रपितामहः । त्रयो ह्यश्रुमुखा होते पितरः संप्रकीर्तिताः ॥ तेभ्यः पूर्वे त्रयो ये तु ते तु नान्दीमुखा इति ॥ ब्रह्मपुराण (हेमाद्रि, श्रा०, पृ० १०७; कल्पतरु, श्रा०, पृ० २७०)।'नान्दी' का अर्थ है 'समृद्धि' (ब्रह्मपुराण, कल्पतरु, था०,१०२६८)।
१५. पिण्डनिर्वपणं कुर्यान वा कुर्याद्विचक्षण वृद्धिश्राद्धे महाबाहो कुलधर्मानवेक्ष्य तु ॥ भविष्यपुराण । इस पर पृथ्वीचन्द्रोदय को टिप्पणी यह है-'अतश्चाग्नौकरणादीनामपि निषेधः। तथा–अग्नौकरणमर्घ चावाहनं चावनेजनम् । पिण्डबा प्रकुर्वोत पिण्डहीने निवर्तते ॥'
१६. ब्रह्माण्याद्यास्तथा सप्त दुर्गाक्षेत्रगणाधिपान् । वृक्ष्यादौ पूजयित्वा तु पश्चान्नान्दीमुखान् पितॄन् ॥ मातृपूर्वान्
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