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धर्मशास्त्र का इतिहास
उसका वार्षिक श्राद्ध गृहस्थों के समान उसके पुत्र द्वारा पार्वण पद्धति से होना चाहिए। द्वादशी विष्णु के लिए पवित्र तिथि है और यति (संन्यासी) 'नमो नारायणाय' का जप करते हैं, अतः यतियों के लिए महालयश्राद्ध की विशिष्ट तिथि द्वादशी है। महालय श्राद्ध मलमास में नहीं किया जाता।
दो अन्य श्राद्धों का, जो आज भी सम्पादित होते हैं, वर्णन किया जा रहा है। एक है मातामहश्राद्ध या दौहित्रप्रतिपदा-श्राद। केवल दौहित्र (कन्या का पुत्र), जिसके माता-पिता जीवित हों, अपने नाना (नानी के साथ, यदि वह जीवित न हो) का श्राद्ध आश्विन के शुक्ल पक्ष की प्रथम तिथि पर कर सकता है। दौहित्र ऐसा कर सकता है, भले ही उसके नाना के पुत्र जीवित हों। इस श्राद्ध का सम्पादन पिण्डदान के बिना या उसके साथ (बहधा बिना पिण्डदान के) किया जाता है। बिना उपनयन सम्पादित हुए भी दौहित्र यह श्राद्ध कर सकता है। श्राद्धसार (पृ० २४) का कथन है कि मातामहश्राद्ध केवल शिष्टाचार पर ही आधारित है।
दूसरा श्राद्ध है अविधवानवमी श्राद्ध, जो अपनी माता या कुल की अन्य सधवा रूप में मत नारियों के लिए किया जाता है। इसका सम्पादन भाद्रपद (आश्विन) के कृष्णपक्ष की नवमी को होता है। किन्तु जब नारी की मृत्यु के उपरान्त उसका पति मर जाता है तो इसका सम्पादन समाप्त हो जाता है। निर्णयसिन्धु (२, पृ० १५४) ने इस विषय में कई मत दिये हैं और कहा है कि इस विषय में देशाचार का पालन करना चाहिए। मार्कण्डेयपुराण के मत से इस श्राद्ध में न केवल एक ब्राह्मण को प्रत्यत एक सधवा नारी को भी खिलाना चाहिए और उसे मेखला (कर्धनी), माला एवं कंगन का दान करना चाहिए।
आश्व० ग०, याज्ञ० एवं पद्म के कथनों से प्रकट हो चुका है कि प्रत्येक श्राद्ध में कृत्य के उपरान्त अपनी सामर्थ्य के अनुसार दक्षिणा देनी चाहिए। स्कन्दपुराण (६।२१८११२-१४) ने व्यवस्था दी है कि मन्त्रों, उचित काल या विधि में जो कमी होती है वह दक्षिणा से पूरी की जाती है। बिना दक्षिणा के श्राद्ध मरुस्थल में वर्षा, अँधेरे में नृत्य, बहरे के समक्ष संगीत के समान है, जो अपने पितरों की सन्तुष्टि की अभिलाषा रखता है उसे बिना दक्षिणा के श्राद्ध नहीं करना चाहिए। रामायण (अयोध्याकाण्ड ७७।१-३) में आया है कि दशरथ की मृत्यु के उपरान्त १२वें दिन ब्राह्मणों को रत्नों, सैकड़ों गायों, धन, प्रभूत अन्नों, यानों, गृहों, दासों एवं दासियों की दक्षिणा दी गयी। आश्रमवासिकपर्व (१४३-४) ने भीष्म, द्रोण, दुर्योधन एवं अन्य वीरगति-प्राप्त योद्धाओं के सम्मान में दिये गये दानों का उल्लेख किया है और कहा है कि सभी वर्गों को अन्न-पान (भोजन एवं पेय) से सन्तुष्ट किया गया। वायुपुराण (अध्याय ८०) ने श्राद्धों में दिये जानेवाले दानों का विशद वर्णन किया है। हम स्थानाभाव से सबकी चर्चा नहीं कर सकेंगे। टिप्पणी में पके हुए भोजन के दान की एक प्रशस्ति दे दी जा रही है। शान्तिपर्व (४२१७) में आया है कि योद्धाओं के अन्त्येष्टि-कृत्य के अवसर पर युधिष्ठिर ने प्रत्येक के लिए सभा, प्रपा, जलाशय आदि बनवाये। देवल ने कहा है कि भोजन के उपरान्त आचमन करने पर ब्राह्मणों को दक्षिणा देनी चाहिए और बहस्पति का कथन है कि ब्राह्मणों को उनकी विद्या एवं ज्ञान के अनुसार गौएँ, भूमि, सोना, वस्त्र आदि की दक्षिणा देनी चाहिए, और कर्ता द्वारा दक्षिणा इस प्रकार देनी चाहिए कि वे सन्तुष्ट हो जायें, कम-से-कम जो धनी हैं उन्हें विशेष रूप से ऐसा करना चाहिए (पृथ्वी
२०. अन्नदो लभते तिस्रः कन्याकोटीस्तथैव च । अन्नदानात्परं दानं विद्यते नेह किंचन । अन्नाद् भूतानि जायन्ते जीवन्ति च न संशयः॥ जीवदानात्परं दानं न किंचिदिह विद्यते । अग्नर्जीवति त्रैलोक्यमन्नस्यैव हि तत्फलम् ॥ अन्ने लोकाः प्रतिष्ठन्ति लोकदानस्य तत्फलम् । अन्न प्रजापतिः साक्षात्तेन सर्वमिदं ततम् ॥ वायु० (८०५४-५७)। और देखिए ऐ० ब्रा० (३३३१)-'अन्नं ह प्राणः।'
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