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महालय श्राद्ध की व्याख्या; संकल्प-श्राद्ध
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'अहः' एवं 'वासर' का तात्पर्य 'तिथि' से है ( अपरार्क, पृ० ५४५ ) । स्कन्द० ( ७|१|२०६।५९ ) के अनुसार अधिक मास ( मलमास ) में प्रत्याब्दिक श्राद्ध नहीं किया जाना चाहिए।
कुछ अन्य श्राद्धों के विषय में भी कुछ कह देना आवश्यक है।
महालय श्राद्ध एक अति प्रसिद्ध श्राद्ध है । कुछ पुराणों में इसकी चर्चा है। पद्म० (सृष्टिखण्ड, ४७।२२५-२२८ ) का कथन है कि आषाढ़ मास की पूर्णिमा से आगे के पाँचवें पक्ष में श्राद्ध करना चाहिए, चाहे उस समय सूर्य कन्या राशि में हो या न हो । कन्या राशि वाले सूर्य के १६ दिन सर्वोत्तम दक्षिणाओं से सम्पादित पवित्र श्राद्ध दिनों के समान ही हैं। यदि कृष्ण पक्ष ( जब कि सूर्य कन्या राशि में हो) में श्राद्ध करना सम्भव न हो तो तुलार्क में किया जा सकता है। जब यह श्राद्ध न किया जाय और सूर्य वृश्चिक राशि में चला जाय तो पितर लोग सारी आशाएँ छोड़कर और वंशजों को घोर शाप देकर अपने निवास को लौट जाते हैं। आषाढ़ की पूर्णिमा के पश्चात् पाँचवाँ पक्ष भाद्रपद (आश्विन) का कृष्ण पक्ष होता है । पितृकार्यों के लिए कृष्ण पक्ष सुरक्षित-सा है । भाद्रपद (आश्विन) में सूर्य दक्षिणायन के मध्य में रहता है । अतः पितरों के श्राद्ध के लिए अर्थात् महालय के लिए भाद्रपद (आश्विन) का कृष्ण पक्ष विशेष रूप से चुना गया है । इसे महालय इसलिए कहा गया है कि इस मास का कृष्णपक्ष पितरों का आलय है, मानो यह उनके मह (उत्सव दिन) का आलय (निवास) है। और देखिए स्कन्दं० ( ६ २१६ । ९६-९७ श्राद्धकल्पलता, पृ० ९८ ) । कल्पतरु ने भविष्यपुराण को उद्धृत कर कहा है कि यदि किसी ने महालय में भाद्रपद (आश्विन) के कृष्णपक्ष में, जब कि सूर्य कन्या राशि में रहता है ) श्राद्ध नहीं किया तो उसे आश्विन (कार्तिक) कृष्णपक्ष की अमावस्या को करना चाहिए, जिसमें दीप जलाये जाते हैं । श्राद्धसार ( पृ० ११३) एवं स्मृतिमुक्ताफल (श्रा०, पृ० ७४५ ) ने वृद्ध मनु को उद्धृत किया है कि भाद्रपद (अमान्त) का अन्तिम पक्ष, जब कि सूर्य कन्या राशि में रहता है, महालय या गजच्छाया कहलाता है । महालय श्राद्ध सम्पादन की ठीक तिथि के विषय में कई मत हैं, यथा इसका सम्पादन भाद्रपद (आश्विन) के कृष्ण पक्ष की प्रथम तिथि से लेकर अमावस्या तक की किसी भी तिथि में हो सकता है, या अष्टमी, दशमी तिथि से अमावस्या तक की किसी तिथि में, या इस मास की पंचमी तिथि से लेकर आगे के पक्ष की पंचमी तिथि तक, या किसी भी दिन to कि सूर्य कन्या राशि में रहता है, या किसी भी दिन जब तक कि सूर्य वृश्चिक राशि में प्रवेश नहीं करता । प्रजापति (३७) ने कहा है कि पुराणों में बहुत-से फलदायक श्राद्ध वर्णित हैं किन्तु महालय श्राद्ध सर्वश्रेष्ठ है ।
मार्कण्डेयपुराण (स्मृतिमु०, पृ० ७४५ ) के मत से महालय श्राद्ध का सम्पादन पार्वण श्राद्ध की पद्धति से होता है । स्मृत्यर्थसार का कथन है कि पार्वणश्राद्ध की पद्धति के अनुसार सभी श्राद्ध ( सपिण्डीकरण के अतिरिक्त) सम्पादित न हो सकें तो उनका सम्पादन संकल्पविधि से 'सकता है, जिसमें आवाहन, अर्घ्य, होम एवं पिण्डदान को छोड़कर पार्वण श्राद्ध की सारी बातें यथासम्भव सम्पादित होती हैं । मदनपारिजात ( पृ० ६०९-६१०) का कथन है कि संकल्प श्राद्ध में अर्घ्यदान, विकिर के विस्तार, आवाहन, अग्नौकरण, पिण्डदान आदि नहीं किये जाते, किन्तु कर्ता को एक या कई ब्राह्मणों को खिलाना अवश्य चाहिए।
महालय श्राद्ध के विश्वेदेव हैं धुरि एवं लोचन। यह श्राद्ध न केवल पितृवर्ग एवं मातृवर्ग के पितरों एवं उनकी पत्नियों के लिए होता है, बल्कि अन्य सम्बन्धियों एवं लोगों के ( उनकी पत्नियों, पुत्रों एवं मृत पतियों के) लिए भी होता है, यथा-- विमाता, पत्नी, पुत्र, पुत्री, चाचा, मामा, भ्राता, मौसी, फूफी, बहिन, भतीजा, दामाद, भानजा, श्वशुर, सास, आचार्य, उपाध्याय, गुरु, मित्र, शिष्य एवं अन्य कोई सम्बन्धी । कुछ लोग केवल पितृवर्ग एवं मातृवर्ग के पितरों एवं उनकी पत्नियों के लिए ही इसे करते हैं। जिस दिन भाद्रपद (आश्विन) के कृष्णपक्ष में चन्द्र भरणी नक्षत्र में रहता है वह महाभरणी कहलाती है और उस दिन का सम्पादित श्राद्ध गया श्राद्ध के बराबर माना जाता है ( मत्स्यपुराण, श्राद्धकल्पलता, १०९९ ) । संन्यासी का महालय श्राद्ध इस पक्ष की द्वादशी को होता है, अन्य तिथि को नहीं, और
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