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धर्मशास्त्र का इतिहास
या कल्याणार्थ किये जानेवाले कृत्यों पर सम संख्या में ब्राह्मणों को निमन्त्रित करना चाहिए, कृत्यों को बायें से दाहिने करना चाहिए और तिल के स्थान पर यव (जी) का प्रयोग करना चाहिए। यह श्राद्ध अपराकं (पृ० ५१४) के मत से पार्वण की ही विकृति (संशोधन या शाखा) है, अतः इसमें पार्वण के ही नियम, विशिष्ट संकेतों को छोड़कर, प्रयुक्त होते हैं। आश्व० गृ० परि० (२।१९), स्मृत्यर्थसार (पृ० ५६) एवं पितृदयिता (पृ० ६२-७१) ने संक्षिप्त किन्तु अपने में पूर्ण विवेचन उपस्थित किये हैं।
____ इस श्राद्ध में, जो प्रातःकाल किया जाता है (पुत्रोत्पत्ति को छोड़ कर, जिसमें यह तत्क्षण किया जाता है), विश्वेदेव हैं सत्य एवं वसु; इसका सम्पादन पूर्वाल में होना चाहिए; आमन्त्रित ब्राह्मणों की संख्या सम होनी चाहिए; दर्भ सीधे होते हैं (दुहरे नहीं)और जड़ युक्त नहीं होते; कर्ता उपवीत ढंग से जनेऊ धारण करता है (प्राचीनावीत ढंग से नहीं); सभी कृत्य बायें से दाहिने किये जाते हैं ('प्रदक्षिणम्' न कि 'अपसव्यम्' ढंग से); 'स्वधा' शब्द का प्रयोग नहीं होता; तिलों के स्थान पर यवों का प्रयोग होता है; कर्ता ब्राह्मणों को 'नान्दीश्राद्ध में आने का समय निकालिए' कहकर आमन्त्रित करता है। ब्राह्मण ‘ऐसा ही हो' कहते हैं। कर्ता कहता है--'आप दोनों (मेरे घर) आयें और वे कहते हैं-'हम दोनों अवश्य आयेंगे।' कर्ता पूर्व या उत्तर की ओर मुख करता है (दक्षिण की ओर कभी नहीं)। यवों के लिए ‘यवोसि' मन्त्र कहा जाता है। कर्ता कहता है--'मैं नान्दीमुख पितरों का आवाहन करूँगा।" 'अवश्य बुलाइए' की अनुमति पाकर वह कहता है--'नान्दीमुख पितर प्रसन्न हों'; वह एक बार 'हे नान्दीमुख पितरो, यह आप के लिए अर्घ्य है' कहकर अर्घ्य देता है। चन्दनलेप, धूप, दीप दो बार दिये जाते हैं; होम ब्राह्मण के हाथ पर होता है; दो मन्त्र ये हैं—'कव्यवाह अग्नि के लिए स्वाहा' एवं 'पितरों के साथ संयुक्त सोम को स्वाहा।' ब्राह्मणों के भोजन करते समय 'रक्षोन मन्त्रों, इन्द्र को सम्बोधित मन्त्रों एवं शान्ति वाले मन्त्रों का पाठ होता रहता है, किन्तु पितरों को सम्बोधित मन्त्रों (ऋ० १०।१५।१-१३) का नहीं; जब कर्ता देखता है कि ब्राह्मण लोग भोजन कर सन्तुष्ट हो चुके हैं तो वह 'उपास्मै गायता नरः' (ऋ० ९।११।१-५) से आरम्भ होनेवाले पाँच मन्त्रों का पाठ करता है किंतु मधुमती (ऋ० ११९०।६-८) मन्त्रों का नहीं और अन्त में वह ब्राह्मणों को 'पितर (भोजन का) भाग ले चुके हैं, वे आनन्द ले चुके हैं' मन्त्र सुनाता है। कर्ता को इस समय (जब कि पार्वण में 'अक्षय्योदक' माँगा जाता है) यह कहना चाहिए 'मैं नान्दीमुख पितरों से आशीर्वचन कहने की प्रार्थना करूँगा' और ब्राह्मणों को प्रत्युत्तर देना चाहिए--'अवश्य प्रार्थना कीजिए।' कर्ता 'सम्पन्नम् ?' (क्या पूर्ण था? ) शब्द का प्रयोग करता है और ब्राह्मण 'सुसम्पन्नम्' (यह पर्याप्त पूर्ण था) कहते हैं। ब्राह्मण-भोजन के उपरान्त आचमन-कृत्य जब हो जाता है तो कर्ता भोजनस्थान को गोबर से लीपता है, दर्भो के अग्र-भागों को पूर्व दिशा में करके उन्हें बिछाता है और उन पर दो पिण्ड (प्रत्येक पितर के लिए) रख देता है। ये पिण्ड ब्राह्मण-भोजन के उपरान्त बचे हुए भोजन में दही, बदरीफल एवं पृषदाज्य (दही एवं घृत से बना हुआ) मिलाकर बनाये जाते हैं। पिण्डों का अर्पण माता, तीन अपने पितरों, तीन मातृवर्ग के पितरों (नाना, परनाना एवं बड़े परनाना) को होता है। कुछ लोगों के मत से इस श्राद्ध में पिण्डार्पण नहीं होता (आश्व० गृ० परि० २०१९) । पितृदयिता एवं श्राद्धतत्त्व का कथन है कि सामवेद के अनुयायियों द्वारा आम्युदयिक श्राद्ध में
११. संकल्प कुछ इस प्रकार का होगा--'ओम् अमुकगोत्राणां मातृपितामहीप्रपितामहीनाममुकामुकामुकदेवीनां नाम्दीमुखीनां तथामुकगोत्राणां पितृपितामहप्रपितामहानाममुकामुकमुकशर्माणां नान्दीमुखानां तथामुकगोत्राणां मातामहप्रमातामहवृक्षप्रमातामहानाममुकामुकामुकशर्माणां नान्दीमुखानामुकगोत्रस्य कर्तव्यामुककर्मनिमितकमाभ्युवयिकभारमहं करिष्ये । श्रादविवेक (रुद्रधरकृत, पृ० १४९)। 'देवीना' के लिए 'दाना' ही बहुधा रखा जाता है।
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