________________
धर्मशास्त्र का इतिहास
१२७६
माता के जीवित रहते श्राद्ध करने के विषय में भी दिये गये हैं (अग्नि० ११७।६० एवं मात्रादिकस्यापि तथा मातामहादिके ) ।
गोभिलस्मृति (३।१५७) का कथन है कि यदि मौलिक पद्धति का अनुसरण न किया जा सके तो उस श्रुतिनियम को अनुकल्प ( किसी अन्य प्रतिनिधिस्वरूप व्यवस्थित पद्धति) के द्वारा प्रभावशील अर्थात् चरितार्थं करना चाहिए। यदि कोई बहुत-से ब्राह्मणों को न पा सके, केवल एक ही ब्राह्मण को आमन्त्रित कर सके तो उसे उस पार्वण श्राद्ध का सम्पादन करना चाहिए, जिसमें केवल एक ही ब्राह्मण के साथ छः पिण्डों का अर्पण होता है, किन्तु उस ब्राह्मण को पंक्तिपावन अवश्य होना चाहिए और वैसी दशा में देव ब्राह्मणों के लिए भोजन के स्थान पर नैवेद्य देना चाहिए, और फिर उसको अग्नि में डाल देना चाहिए (शंख १४ । १० ) । ११५ यदि पार्वण श्राद्ध के लिए एक भी ब्राह्मण न मिल सके तो ब्राह्मण बटुओं की कुशाकृतियाँ बना लेनी चाहिए और कर्ता को स्वयं प्रश्न करना चाहिए और पार्वण श्राद्ध में प्रयुक्त होनेवाले उत्तर देने चाहिए (देवल, हेमाद्रि, श्रा० पृ० १५२६ श्राद्धक्रियाकौमुदी, पृ० ८९ ) ।
जब कोई ब्राह्मण न मिले, श्राद्ध सामग्री न हो, व्यक्ति यात्रा में हो, या पुत्र उत्पन्न हुआ हो, या पत्नी रजस्वला हो गयी हो तो आमश्राद्ध (जिसमें बिना पका हुआ अन्न दिया जाता है) करना चाहिए।" यह स्कन्द० (७/१/२०६।५२ ) की उक्ति है । कात्यायन एवं सौरपुराण (१९३२) में भी ऐसी उक्ति है कि 'प्रवास या यात्रा में या आपत्तिकाल में या यदि भोजन बनाने के लिए अग्नि न हो या यदि कर्ता बहुत दुर्बल हो तो द्विज को आमश्राद्ध करना चाहिए।' मदनपारिजात ( पृ० ४८३ ) का कथन है कि वह आमश्राद्ध कर सकता है जिसे पार्वण श्राद्ध करने का अधिकार है। हारीत का कथन है कि यदि श्राद्ध सम्पादन में कोई बाधा हो तो आमश्राद्ध करना चाहिए। किन्तु मासिक एवं सांवत्सरिक श्राद्धों में ऐसा नहीं करना चाहिए। आमश्राद्ध शूद्रों के लिए सदा व्यवस्थित है । ऐसी व्यवस्था है कि बिना पका हुआ अन्न, जो श्राद्ध में अर्पित होता है, ब्राह्मणों को पकाकर स्वयं खाना चाहिए, उसे किसी अन्य उपयोग में नहीं लाना चाहिए ( हेमाद्रि, श्रा०, पृ० १५२७ ) । व्यास का कथन है कि अन्न की मात्रा इतनी होनी चाहिए कि खिलाने में वह दूनी, तिगुनी या चौगुनी मात्रा का हो जाय। 'आवाहन', 'स्वधाकार', 'विसर्जन' जैसे शब्दों में परिवर्तन हो जाता है, यथा-- आवाहन में प्रयुक्त मंत्र है--'उतस्त्वा' ( वाज० सं० १९/७० ) जिसका अन्त 'हविषे अत्तवे' (हविष खाने के लिए) में होता है, वहाँ 'हविषे स्वीकर्तवे' का प्रयोग करना पड़ता है।
११४. चरितार्था श्रुतिः कार्या यस्मादप्यनुकल्पतः । अतो देयं यथाशक्ति श्राद्धकाले समागते । कात्यायन ( हेमाद्रि, ब०, पृ० १५२२ ) ।
११५. भोजयेदथवाप्येकं ब्राह्मणं पंक्तिपावनम् । देवे कृत्वा तु नैवेद्यं पश्चाद्वह्नौ तु तत्क्षिपेत ॥ शंख ( १४।१० ), हेमाद्रि ( श्र०, पृ० १५२४) ने इसे यों पढ़ा है— पश्चात्तस्य तु निर्वपेत् ।
११६. द्रव्याभावे द्विजाभावे प्रवासे पुत्रजन्मनि । आमश्राद्धं प्रकुर्वीत यस्य भार्या रजस्वला ।। स्कन्द ० ( ७।१।२०६ | ५२) । इसे स्मृतिच ० ( श्र०, पृ० ४९२) ने व्यास की उक्ति कहा है। आपद्यनग्नौ तीर्थे च प्रवासे पुत्र जन्मनि । आमश्राद्धं प्रकुर्वीत भार्यारजसि संक्रमे ॥ कात्या० ( निर्णयसिन्धु ३, पृ० ४६२; मदन पा०, पृ० ४८० । कल्पतरु ( पृ० २३४) ने व्याख्या की है— 'अनग्निश्चात्र पाकसमर्थाग्निरहितः, न पुनरनग्निरनाहिताग्निः ।'
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org