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विभिन्न प्रान्तों में प्रचलित धारपद्धति
१२७१ है, जिसका वर्णन हम यहाँ नहीं करेंगे। दक्षिण भारत (मद्रास आदि) में जो प्रतिसांवत्सरिक श्राद्ध होता है उसमें एवं पश्चिम भारत वाले में केवल कुछ बातें ही भिन्न हैं। दक्षिण (या मद्रास) की पद्धति में बहुत-से मन्त्र एवं ते.
TO के कथन आदि नहीं पाये जाते, किन्तु ब्राह्मणों की पदधूलि की प्रशंसा वाले श्लोक आते हैं। बहुत-से वैदिक एवं पौराणिक मन्त्र एक-से हैं। मद्रास-पद्धति में आये हुए आशीर्वाद बहुत विस्तृत हैं, वहाँ कर्ता के पशुओं के दीर्घ जीवन एवं स्वास्थ्य के लिए भी आशीर्वाद-वचन दिये हुए हैं। वहाँ की विधि में ही बहुत-से मन्त्र 'अन्नसूक्त' के रूप में दिये गये हैं और उस पद्धति के अन्त में प्रसिद्ध उक्ति है-'कायेन वाचा मनसेन्द्रियैर्वा'।
बंगाल में माध्यन्दिन शाखा वाले यजुर्वेदियों की विधि, जिसे रघुनन्दन ने अपने यजुर्वेदि-श्राद्धतत्त्व में दिया है, पूर्णरूपेण कात्यायन के श्राद्धसूत्र की दूसरी एवं तीसरी कण्डिकाओं पर आधारित है। हलायुध के ब्राह्मणसर्वस्व में जो पार्वणश्राद्ध-प्रयोग पाया जाता है, वह कात्यायन पर आधारित है। पश्चिम बंगाल के भाटपारा के माध्यन्दिनों द्वारा प्रयुक्त पार्वणश्राद्ध-विधि रघुनन्दन द्वारा स्थापित पद्धति का अनुसरण करती है। अब यहाँ कात्यायन के श्राद्धसूत्र का अनुवाद दिया जाता है और साथ ही हलायुध एवं रघुनन्दन की व्याख्याएँ एवं उन्होंने जो ऊपर से जोड़ा है--सब कुछ दिया जा रहा है।
“पार्वण श्राद्ध में पूर्व ही विश्वेदेवों के कृत्य किये जाते हैं। पिण्डपितृयज्ञ की विधि ही अनुसरित होती है।०६ पितृकृत्य में सर्वत्र द्विगुण (दोहराये हुए) दर्भ प्रयुक्त होते हैं (वैश्वदेविक कृत्य में सीधे दर्भ प्रयुक्त होते हैं)। जब कुछ दान किया जाता है, कर्ता (सभी दैव एवं पित्र्य कृत्यों में) पवित्र पहनता है और बैठे-बैठे दान देता है। (जब प्रश्न पूछे जाते हों तो) कर्ता ब्रह्मभोज में बैठे हुए लोगों में सर्वोच्च या मूर्धन्य से (दैव कृत्य में मूर्धन्य दैव ब्राह्मण से एवं पित्र्य कृत्य में मूर्धन्य पित्र्य ब्राह्मण से) प्रश्न करता है या वह सभी से प्रश्न कर सकता है (उत्तर एक व्यक्ति या सभी लोग देते हैं)। आसनों पर दर्भ बिछाकर (वह ब्राह्मणों को बैठाता है) वह प्रश्न करता है-'क्या मैं विश्वेदेवों का आवाहन करूँ ?' (दैव ब्राह्मणों से) अनुमति पाकर (अवश्य आवाहन करो का उत्तर पाकर) वह विश्वे देवास आगत' (वाज० सं०७।३४ हे सभी देव, आइए, मेरे आवाहन को सुनिए और दर्भ पर बैठिए') के साथ विश्वेदेवों का आवाहन करता है। इसके उपरान्त वह (ब्राह्मणों के समक्ष) यव (जौ) बिखेरता है और एक मन्त्र का उच्चारण करता है (वाज. स० ३३१५३, 'विश्वेदेवाः शृणुतेमम्' अर्थात् हे देव, मेरे इस आवाहन को सुनिए)। इसके उपरान्त वह (पित्र्य ब्राह्मणों से) पूछता है---'मैं पितरों को बुलाऊँगा।' (पित्र्य ब्राह्मणों से) अनुमति पाकर (अवश्य बुलाओ ऐसी अनुमति), वह 'उशन्तस् त्वाम्' (वाज० सं० १९।७०, 'हे अग्नि, हम अपने पितरों के इच्छुक हैं, तुम्हें नीचे रखते है आदि') मन्त्र के साथ उनका आवाहन करता है। तब वह (पित्र्य बाह्मणों के समक्ष तिल) बिखेरता है और मन्त्र-पाठ करता है (वाज० सं० १९।५८, 'आयन्तु नः पितरः' अर्थात् 'सोमप्रिय पिता हमारे पास आयें आदि')। तब वह यज्ञिय वृक्ष
१०६. पिण्डपितृयज्ञववुपचारः-परिणाम यह है-अपराहु कालः, श्राद्धकर्तुःप्राचीनावीतिता, दक्षिणाभिमुखता, वामजानुनिपातः, पितृतीयं, अप्रादक्षिण्यं, दक्षिणापवर्गता, दर्भाणां दक्षिणाग्रता चेत्यादयः पैतृका धर्माः। इनसे यह प्रकट होता है कि वैश्वदेविक ब्राह्मणोपचार में निम्न प्रकार पाये जाते हैं-यज्ञोपवीतिता, कर्तुरुदहुमुखता, दक्षिणजानुनिपातः, देवतीर्थ, प्रादक्षिण्यम्, उदगपवर्गता, प्रागग्रता चेत्यादयो वैविकधर्माः। प्रथम भाग में कुछ अपवाद हैं, यथादक्षिणादान, स्तोत्रजप एवं विप्रविसर्जन।
१०७. यह ज्ञातव्य है कि कात्यायन द्वारा उधत सभी मन्त्र उपयुक्त एवं समीचीन हैं। स्थानाभाव से सभी मन्त्र अनूदित नहीं किये जा रहे हैं।
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