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धर्मशास्त्र का इतिहास निकले हैं। विष्णुधर्मोत्तर-पुराण (१।१३९।१२) में आया है कि वराहावतार में विष्णु के बालों एवं पसीने से दर्भ उत्पन्न हुआ है। और देखिए मत्स्य० (२२।८९)।
गरुड़० (प्रेतखण्ड २।२१-२२) का कथन है कि तीनों देवता कुश में निवास करते हैं; ब्रह्मा जड़ में, विष्णु मध्य में और शंकर अग्र भाग में । ब्राह्मण, मन्त्र, कुश, अग्नि एवं तुलसीदल बार-बार प्रयुक्त होने पर भी निर्माल्य (बासी अत: प्रयोग के लिए अयोग्य) नहीं होते। किन्तु गोभिल ने एक अपवाद दिया है कि वे दर्भ जो पिण्ड रखने के लिए बिछाये जाते हैं या जो तर्पण में प्रयुक्त होते हैं या जिन्हें लेकर मल-मत्र त्याग किया जाता है, वे त्याज्य हैं (उनका प्रयोग पुनः पुनः नहीं होता)। विष्णु ध० सू० (७९।२) एवं वायु० (७५।४१) ने व्यवस्था दी है कि कुशों के अभाव में कास या दूर्वा का प्रयोग हो सकता है। स्कन्द० (प्रभास खण्ड, ७, भाग १२२०६।१७) का कथन है कि दान, स्नान जप, होम, भोजन एवं देवपूजा में सीधे दर्शों का प्रयोग होना चाहिए, किन्तु पितृकृत्य में उन्हें दुहराकर प्रयोग में लाना चादिए। स्कन्द० (७।१।२०५।१६) ने कहा है कि देवकृत्य में दर्शों का ऊपरी भाग एवं गैतृक कृत्यों में मूल एवं नोक सहित दर्भ प्रयुक्त होते हैं। यह शतपथ ब्राह्मण (२।४।२।१७) पर आधारित है जिसका कहना है कि दर्भ का ऊपरी भाग देवों का होता है, मध्य मनुष्यों का एवं जड़ भाग पितरों का।
___ श्राद्ध में तिल-प्रयोग को बहुत महत्त्व दिया गया है। जैमिनिगृह्य० (२।१) का कहना है कि उस समय सारे घर में तिल बिखेरा रहना चाहिए। बौधा० ध० सू० (२१८१८) में आया है कि जब आमंत्रित ब्राह्मण आयें तो उन्हें तिलजल देना चाहिए। बौधा० गृ० (२।११।६४) का कथन है कि श्राद्ध में दान करने या कुछ भाग भोजन रूप में या जल के साथ मिलाने के लिए तिल बहुत ही पवित्र माने गये हैं। प्रजापतिस्मृति ने चार प्रकार के तिलों का उल्लेख किया है; शुक्ल, कृष्ण, अति कृष्ण एवं जतिल जिनमें प्रत्येक अपने पूर्ववर्ती से अपेक्षाकृत पितरों को अधिक संतुष्टि देनेवाला है। ते० सं० (५।४।३।२) ने जतिलों का उल्लेख किया है और जैमिनि (१०।८।७) ने इस पर विवेचन उपस्थित किया है। नारदपुराण (पूर्वार्ध २८१३६) ने व्यवस्था दी है कि श्राद्धकर्ता को आमंत्रित ब्राह्मणों के बीच एवं द्वारों पर 'अपहता असुरा रक्षांसि वेदिषदः' (वाज० सं० २।१९) मंत्र के साथ तिल विकीर्ण करने चाहिए। यही मंत्र याज्ञ० (२।२३४) ने भी दिया है जिसका अर्थ है-'असुर और टुष्टात्माएँ जो वेदी पर बैठी रहती हैं, हत हों एवं भाग जायें।' कूर्म० (२।२२।१८) में आया है कि चतुर्दिक तिल बिखेर देने चाहिए और उस स्थान पर बकरी बाँध देनी चाहिए, क्योंकि असुरों द्वारा अपवित्र किया गया श्राद्ध तिल और बकरी से शुद्ध हो जाता है। विष्णुपुराण (३।१६।१४) ने कहा है कि भूमि पर बिखेरे हुए तिलों द्वारा यातुधानों (दुष्टात्माओं) को भगाना चाहिए। गरुडपुराण (प्रतखण्ड, २०१६) ने श्री कृष्ण से कहलाया है; 'तिल मेरे शरीर के स्वेद (पसीना) से उद्भूत हैं और पवित्र हैं; असुर, दानव एवं दैत्य तिलों के कारण भाग जाते हैं।' अनुशासन० (९०।२२) में आया है कि बिना तिलों के श्राद्ध करने से यातुधान एवं दुष्टात्माएँ हवि को उठा ले जाती हैं। कृत्यरत्नाकर ने एक श्लोक इस प्रकार उद्धृत किया है जो तिल का उबटन (लेप) लगाता है, जो तिलोदक से स्नान करता है, जो अग्नि में तिल डालता है, जो तिल दान करता है, जो तिल खाता है और जो तिल उपजाता है--वह कभी नहीं गिरता (अर्थात् अभागा नहीं होता और न कष्ट में पड़ता है)।
७०. विप्रा मन्त्राः कुशा वह्विस्तुलसी च खगेश्वर। नैते निर्माल्यतां यान्ति क्रियमाणाः पुनः पुनः॥ गरुड़ (प्रेतखण्ड २१२२)।
७१. शुक्लः कृष्णः कृष्णतरश्चतुर्यो जतिलस्तिलः। उत्तरोत्तरतः श्राद्धे पितॄणां तृप्तिकारकाः ॥ प्रजापति (९९) । 'जतिल' जंगली तिलों को कहते हैं।
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