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धर्मशास्त्र का इतिहास
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के उत्तर खड़ा होकर एवं दक्षिणाभिमुख होकर भूसी हटाकर चावल निकलता है। वह चावल केवल एक ही बार स्वच्छ करता है। क्योंकि पितर लोग सदा के लिए (एक ही बार ) चले जाया करते हैं । तब वह उन्हें उबालता है । वह (दक्षिणाग्नि पर) खड़ा रहकर ही उसमें घृत डालता है। वहां से हटकर वह अग्नि में दो आहुतियां डालता है । . वह पितृयज्ञ में संलग्न है; ( उससे) वह देवों को प्रसन्न करता है और देवों से अनुमति लेकर वह पितरों को भोजन देता है। वह अग्नि एवं सोम दोनों को देता है । वह 'कव्यवाह ( पितरों की आहुतियों को ढोनेवाले ) अग्नि को स्वाहा' मंत्र के साथ आहुति देता है । यह मन्त्र भी कहता है - 'पितरों के साथ रहनेवाले सोम को स्वाहा ।' वह तब मेक्षण ( चंमच जिससे पकती हुई वस्तु चलायी जाती है) को अग्नि पर रखता है, वह स्विष्टकृत् के प्रतिनिधि स्वरूप अर्थात् उसके स्थान पर ऐसा करता है। इसके उपरान्त वह दक्षिणाग्नि के दक्षिण स्पय से एक रेखा खींच देता है, जो वेदी के अभाव की पूर्ति करती है। तब वह और दक्षिण की ओर रेखा के अन्त भाग पर अग्नि रखता है; क्योंकि ऐसा न करने से पितरों के भोजन को असुर एवं राक्षस अशुद्ध कर देंगे।.... वह ऐसा करते हुए कहता है--' विभिन्न रूप धारण करके, छोटे या बड़े शरीर में जो असुर स्वधा ( पितरों की आहुति ) से आकृष्ट होकर इधर-उधर विचरण किया करते हैं, उन्हें अग्नि इस संसार से हटा दें' (वाज० सं० २१३० ) ; . तब वह जल-पात्र उठाता है और पितरों के हाथ धुलाता है (ऐसा करते हुए वह पिता पितामह, प्रपितामह के नाम लेता है) । यह उसी प्रकार किया जाता है, जैसा कि अतिथि को खिलाते समय किया जाता है। इसके उपरान्त दर्भ को एक बार में अलग करता है और जड़ से काट लेती है; ऊपरी भाग देवों का, मध्य भाग मनुष्यों का एवं मूल भाग पितरों का होता है। इसी लिए वे (दर्भ) जड़ के पास से काटे जाते हैं। वह उन्हें रेखा से सटाकर ऊपरी भाग को दक्षिण में करके रखता है। इसके उपरान्त वह पितरों को भात के तीन पिण्ड देता है। वह इस प्रकार देता है -- देवों के लिए इस प्रकार; मनुष्यों के लिए दर्वी से उठाकर ; ऐसा ही पितरों के लिए भी करता है; अतः वह इस प्रकार पितरों को पिण्ड देता है । ‘आपके लिए यह' ऐसा कहकर यजमान के पिता को देता है (नाम लिया जाता है)। कुछ लोग जोड़ देते हैं 'उनके लिए जो पश्चात् आयेंगे', किन्तु वह ऐसा न करे, क्योंकि वह भी तो बाद को आनेवालों में सम्मिलित है । अतः वह केवल इतना ही कहे—'अमुक अमुक, यह आपके लिए है।' ऐसा ही वह पितामह एवं प्रपितामह के लिए भी करता है।... तब वह कहता है--'हे पितर, यहाँ आनन्द मनाओ, बैलों के समान अपने-अपने भाग पर जुट जाओ ! ' ( वाज० सं० २०३१ ) । इसके उपरान्त वह दक्षिणाभिमुख जाता है, क्योंकि पितर लोग मनुष्यों से दूर रहते हैं, अतः वह भी इस प्रकार (पितरों) से दूर है। उसे साँस रोककर खड़ा रहना चाहिए या जब तक साँस न टूटे तब तक, जैसा कि कुछ लोगों का कहना है, 'क्योंकि इससे शक्ति की बहुत वृद्धि होती है।' अस्तु, एक क्षण ऐसे खड़े रहने के उपरान्त वह दाहिनी ओर धूम जाता है और कहता है- 'पितर लोग सन्तुष्ट हो गये हैं, बैल की भांति वे अपने-अपने भाग पर आ गये हैं' (वाज० सं० २।३१) । इसके उपरान्त वह पिण्डों पर जल ढारकर पितरों से हथों को स्वच्छ करने को कहता है। ऐसा वह अलग-अलग नाम लेकर पिता, पितामह एवं प्रपितामह को स्वच्छ कराता है। ऐसा उसी प्रकार किया जाता है जैसा कि अतिथि के साथ होता है। तब वह ( यजमान अपना कटि वस्त्र ) खींचकर नमस्कार करता है। ऐसा करना पितरों को प्रिय है । नमस्कार छः बार किया जाता है, क्योंकि ऋतुएँ छः हैं और पितर लोग ऋतुएँ हैं। वह कहता है, 'हे पिता, हमें घर दो', क्योंकि पितर लोग घरों के शासक होते हैं, और यह यज्ञ-सम्पादन के समय कल्याण के लिए स्तुति है | जब पिण्ड ( किसी थाल में) अलग रख दिये जाते हैं तो यजमान उन्हें सूघता है; यह सूंघना ही यजमान का भाग है। एक बार में काटे गये दर्भ अग्नि में रख दिये जाते हैं और वह रेखा के अन्त वाले उल्मुक (अग्नि- खण्ड) को भी अग्नि में डाल देता है ।"
यह ज्ञातव्य है कि पार्वण श्राद्ध के बहुत से प्रमुख तत्त्व शतपथ ब्राह्मण में स्पष्ट रूप से वर्णित हैं । हम उन्हें एक
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