________________
१२६४
पा
धर्मशास्त्र का इतिहास और मातृ-पितरों के लिए पृथक् पिण्ड देने चाहिए (१४।३७) । कुछ लोगों का मत है कि पुत्रिकापुत्र (नियुक्त कन्या के पुत्र) या दौहित्र पुत्र को, जो नाना की सम्पत्ति का उत्तराधिकार पाता है, मातृ-पितरों के लिए पिण्डदान करना अनिवार्य है। बृहत्पराशर (अध्याय ५, पृ० १५३) ने इस विषय में कई मत दिये हैं। यह सम्भव है कि जब पुत्रो को गोद लेने की प्रथा कम प्रचलित हुई या सदा के लिए विलीन हो गयी तो पार्वण श्राद्ध में मातृ-पितर पित्र्य-पितरों के साथ ही संयुक्त हो गये।
पितरों की पत्नियां पुरुषों (पूर्व-पुरुषों) के साथ कब संयुक्त हुई ? इस प्रश्न का उत्तर सन्तोषप्रद ढंग से नहीं दिया जा सकता। प्रस्तुत वैदिक साहित्य में पितामही का उल्लेख नहीं मिलता। किन्तु यह निश्चित है कि पूर्वपुरुषों की पत्नियाँ सूत्र-काल में अपने पतियों के साथ सम्बन्धित हो गयीं। उदाहरणार्थ हिरण्यकेशि-गृ० (२०१०) ने कृष्ण पक्ष के मासिक श्राद्ध में माता, मातामही एवं प्रमातामही को उनके पतियो के साथ सम्बन्धित कर रखा है। इसी प्रकार बौधा० गृ० (२१११-३४) ने अष्टका श्राद्ध में न केवल मातृ-पक्ष के पितरों को पितृपक्ष के पितरो के साथ रखा है, प्रत्युत उनकी पत्नियों को भी साथ रखा है। आप० मन्त्रपाठ (२।१९।२-७) में पूर्व-पुरुषों एवं उनकी पत्नियों के लिए भी मन्त्रों की योजना आयी है। शांखा० गृ० (४१११११) ने व्यवस्था दी है कि पितृपक्ष के पितरों के पिण्डों के पश्चात् ही कर्ता को उनकी पत्नियों के पिण्ड रखने चाहिए; दोनों प्रकार के पिण्डो के बीच कुछ रख देना चाहिए, जिस पर भाष्यकार ने लिखा है कि दोनों के मध्य में दर्भ रख देना चाहिए। कौशिकसूत्र (८८।१२) का कथन है कि पूर्व-पुरुषों के पिण्डों के दक्षिण की ओर उनकी पत्नियों के पिण्ड रखे जाने चाहिए। आश्व० ग० (२२५।४-५) ने अन्वष्टक्य के विषय में चर्चा करते हए कहा है कि उबाले हए चावल के मण्ड (मांड) के साथ पितरों की पत्नियों: चाहिए। वैखानसस्मार्तसूत्र (४७) ने पिण्डपितयज के कृत्य का वर्णन (४।५-६) करके टिप्पणी की है कि इस और सामान्य मासिक श्राद्ध में अन्तर यह है कि दूसरे (मासिक श्राद्ध) में पितरों की पत्नियों को भी पिण्ड दिया जाता है। पितरों की पत्नियों के लिए पिण्डदान का प्रचलन समयानुसार विकसित हुआ है और ऐसा स्वाभाविक भी था। कुछ स्मृतियों ने पार्वण श्राद्ध में पितरों की पत्तियों को रखने पर बल दिया है। शातातप में आया है-'सपिण्डीकरण के उपरान्त पितरों को जो दिया जाता है उसमें सभी स्थानों पर माता आती है। अन्वष्टका कृत्यो, वृद्धि श्राद्ध, गया में एवं उसकी वार्षिक श्राद्ध-क्रिया में माता का अलग से श्राद्ध किया जा सकता है, किन्तु अन्य विषयों में उसके पति के साथ ही उसका श्राद्ध होता है (श्रा० प्र०, पृ० ९, स्मृतिच०, श्रा०, पृ० ३६९)। बृहस्पति में ऐसा आया है कि माता अपने पति (कर्ता के पिता) के साथ श्राद्ध ग्रहण करती है और यही नियम पितामही एवं प्रपितामही के लिए भी लाग है (स्मृतिच०, श्राद्ध,१०३६९; हेमाद्रि, श्रा०, १०९९ एवं श्रा० प्र०, प०९)। कल्पतरु एवं अन्यों का कथन है कि पितरों की पत्नियाँ पार्वण श्राद्ध में देवता नहीं हैं, वे केवल पितरों के पास आनेवाला वायव्य भोजन पाती हैं (श्रा० प्र०, पृ० ९-१०) । हेमाद्रि एवं अन्य दक्षिणी लेखकों का कथन है कि माता एवं अन्य स्त्री-पूर्वजाएँ पार्वण श्राद्ध. के देवताओ में आती हैं, किन्तु विमाता नहीं। इस विषय में मतैक्य नहीं है कि 'माता', 'पितामही', 'प्रपितामही' शब्दों में उनकी सौतें (सपत्नियाँ) आती हैं कि नहीं। हेमाद्रि (श्रा०,१० ९७-१०४) में इस पर लम्बा विवेचन पाया जाता है। एक मत से विमाता, पितामही की सौत एवं प्रपितामही की सौत एक साथ आती हैं, किन्तु हेमाद्रि के मत से केवल वास्तविक माता, पितामही एवं प्रपितामही ही आती हैं, किन्तु महालय श्राद्ध या गयाश्राद्ध जैस अवसरों पर सभी आती हैं।
९१. मार्जयन्तां मम पितरो मार्जयन्तां मम पितामहा मार्जयन्तां मम प्रपितामहाः। मार्जयन्तां मम मातरो मार्जयन्तां मम पितामह्यो मार्जयन्तां मम प्रपितामह्यः । आप० म० पा० (२।१९।२-७)।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org