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धर्मशास्त्र का इतिहास करना चाहिए, 'पृथिवी तुम्हारा आश्रय है।' उसे ब्राह्मणों के अंगूठों को पकड़कर भोजन पर रखना चाहिए। कर्ता को गायत्री मन्त्र (ऋ० ३।६२।१०, वाज० सं० ३१३५ एवं तै० सं० १।५।६।४) का पाठ ओम्, व्याहृतियों एवं 'मधुवाता' (ऋ० ११९०।६-८, वाज० सं० १३।२७-२९, तै० सं० ४।२।९।३) से आरम्भ होनेवाले तीन मंत्रों के साथ करना चाहिए। उसे कहना चाहिए, 'रुचि के साथ भोजन करें।' ब्राह्मणों को मौन रूप से खाना चाहिए। बिना क्रोध एवं शोरगुल के उसे भोजन परोसना चाहिए और श्राद्ध में हवि के समान भोजन देना चाहिए, ऐसा तब तक करते जाना चाहिए जब तक वे पूर्ण रूप से सन्तुष्ट न हो जायें और उनके पात्रों में कुछ छूट न जाय। जब तक ब्राह्मण खाते रहते हैं तब तक वैदिक मन्त्रों एवं जप के मन्त्रों (गायत्री मन्त्र आदि, याज्ञ० ११२३९) का पाठ होता रहना चाहिए। मिता० (याज० ११२४० ) ने पाठ के लिए पुरुषसूक्त (ऋ० १०।९०११-१६) एवं पावमानी सूक्त (ऋ० के नवें मण्डल वाला) बतलाये हैं, जैसा कि मेधातिथि (मनु ३३८६) एवं हरदत्त (गौतम० १९।१२) ने कहा है। मनु (३।२३२) ने पाठ के लिए अन्य ग्रन्थों का भी उल्लेख किया है, यथा--धर्मशास्त्र, आख्यान, इतिहास (महाभारत), पुराण एवं खिल (श्रीसूक्त एवं विद्यासूक्त के समान रचना)। ब्रह्म-भोज के समय यजमान द्वारा पठनीय पवित्र उक्तियों के विषय में मत-मतान्तर हैं। हम उनका उल्लेख नहीं करेंगे। इसके उपरान्त हाथ में भोजन लेकर कर्ता को ब्राह्मणों से पूछना चाहिए, 'क्या आप सन्तुष्ट हो गये ?' उत्तर मिल जाने के उपरान्त उसे कहना चाहिए कि अभी भोजन बहुत है और मैं इतना रखकर क्या करूंगा। जब ब्राह्मण लोग यह कह दें कि वह उसे अपने मित्रों एवं सम्बन्धियों में बाँट दे, तो उसे शेष भोजन को दक्षिणाभिमुख वाले दर्शों पर रख देना चाहिए और मन्त्र कहना चाहिए-'उनके लिए, जो जलाये गये थे या नहीं जलाये गये थे आदि।' इसके उपरान्त वह प्रत्येक ब्राह्मण के हाथ में जल ढारता है जिससे वह अपना मुख आदि धो ले। इसके उपरान्त पात्रों से भोजन का कुछ भाग निकालकर, उसमें तिल मिलाकर, दक्षिणाभिमुख होकर ब्राह्मणों द्वारा छोड़े गये भोजन के पास पिण्ड बनाकर रख देता है। मातृ-पक्ष के पितरों के लिए भी यही विधि प्रयुक्त होती है। इसके उपरान्त कर्ता ब्राह्मणों को आचमन के लिए जल देता है। तब ब्राह्मणों से आशीर्वाद मांगता है। जब ब्राह्मण 'स्वस्ति' कह देते हैं तो वह ब्राह्मणों के हाथ में जल ढारता है और कहता है, 'यह अक्षय हो।' इसके उपरान्त सामर्थ्य के अनुसार दक्षिणा देकर कर्ता ब्राह्मणों से कहता है, 'क्या मैं आपसे पुनः 'स्वधा' कहने की प्रार्थना कर सकता हूँ ?' जब वे ऐसा करने की अनुमति देते हैं तो वह कहता है-'सम्बन्धित व्यक्तियों (पितर एवं मातृकुल के पूर्वज) के लिए स्वधा का उद्घोष होना चाहिए।' तब ब्राह्मण कहते हैं-'स्वधा हो।' जब ब्राह्मण ऐसा कर लेते हैं तो वह पृथिवी पर जल छिड़कता है और कहता है-'विश्वेदेव प्रसन्न हों।' जब ब्राह्मण कह देते हैं कि 'विश्वेदेव प्रसन्न हों तो वह निम्न बात कहता है-'हमारे कुल में दाताओं की वृद्धि हो, वेदाध्ययन बढ़े, सन्तति बढ़े, पितरों के प्रति हमारी भक्ति न घटे, दान देने के लिए हमारे पास प्रचुर पदार्थ हों।' यह कहकर, प्रसन्न करनेवाले शब्द कहकर, उनके चरणों पर गिरकर (उनकी प्रदक्षिणा करने के उपरान्त) और स्वयं प्रमुदित होकर उनसे जाने के लिए निम्न मन्त्र के साथ कहना चाहिए-'वाजे वाजे' (ऋ० ७।३८१८, वाज० सं० २११११, तै० सं० ११७।८।२) । उनका जाना इस प्रकार होना चाहिए कि पितृ-ब्राह्मण पहले प्रस्थान करें; पहले प्रपितामह, तब पितामह, पिता और तब विश्वेदेव के प्रतिनिधि जायें। वह पात्र जिसमें पहले अर्घ्य के समय ब्राह्मणों के हाथ से टपका हुआ जल एकत्र किया गया था, सीधा कर दिया जाता है तब ब्राह्मणों को विदा किया जाता है। सीमा तक ब्राह्मणों को विदा किया जाता है और प्रदक्षिणा करके लौट आया जाता है। इसके उपरान्त शेष भोजन का कुछ भाग वह स्वयं खाता है। श्राद्धदिन की रात्रि में भोजन करने वाले ब्राह्मण एवं श्राद्धकर्ता संभोग नहीं करते।" और देखिए मिता० (याज्ञ० १२४९)।
बहुत-से पुराणों में प्रत्येक अमावास्या पर किये जानेवाले श्राद्ध के विषय में विशद वर्णन मिलता है। उदाहरणार्थ मत्स्य० (१७॥१२-६०), विष्णु० (३।१५।१३-४९), मार्कण्डेय० (२८१३७-६०), कूर्म० (२।२२।२०-६२), पम०
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