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धर्मशास्त्र का इतिहास
होम करना चाहिए और शेषांश को अन्य पितृ ब्राह्मणों के पात्रों में रख देना चाहिए (गोभिल० २।१२०, स्मृतिच० २, पृ० ४६२ ) । स्मृतिचन्द्रिका ने टिप्पणी की है कि यम एवं वायुपुराण के मत से होम देव ब्राह्मणों के हाथ पर होना चाहिए, और इसी से मतभेद उपस्थित हो गया है तथा विकल्प मान लिया गया है। आगे व्यवस्था दी गयी है कि उस भोजन का, जिससे अग्नौकरण किया गया था, एक भाग पिण्ड बनाने के लिए अलग रख दिया जाता है (मार्कण्डेय एवं गरुड़) । यज्ञोपवीत ढंग से जनेऊ धारण करके कर्ता द्वारा या उसकी पत्नी ( सवर्णा) या किसी शुद्ध सेवक द्वारा भोजन परोसा जाना चाहिए। ब्राह्मणों के पास लाया जाता हुआ भोजन दोनों हाथों से भोजन-पात्र पकड़कर न लाया जाय तो वह दुष्ट असुरों द्वारा झपट लिया जाता है। श्राद्धकर्ता मनोयोगपूर्वक ( परोसने में ही मन लगाये हुए) चटनी अचार, शाक, दूध, दही, घृत एवं मधु के पात्रों को भूमि पर ही रखता है (काठ के बने पीढ़ों आदि पर नहीं) । पृथिवी पर रखे पात्रों में भोजन के विभिन्न प्रकार होने चाहिए, यथा--- मिठाइयाँ, पायस, फल, मूल, नमकीन खाद्य, मसालेदार या सुगंधित पेय । पात्रों को सामने रखकर भोज्य पदार्थों के गुणों का वर्णन करना चाहिए, यथा-यह मीठा है, यह खट्टा है आदि । भोजन परोसते समय ( पूर्वजों का स्मरण करके) रोना नहीं चाहिए, क्रोध नहीं करना चाहिए, झूठ नहीं बोलना चाहिए, पात्रों को पैर से नहीं छूना चाहिए और न झटके से परोसना चाहिए। ब्राह्मणों की रुचि के अनुसार पदार्थ दिये जाने चाहिए, असन्तोष के साथ भुनभुनाना नहीं चाहिए, ब्रह्म के विषय में कुछ चर्चा करनी चाहिए, क्योंकि पितरों को यह रुचिकर होती है । प्रसन्न मुद्रा में ब्राह्मणों को मुदित रखना चाहिए, उन्हें धीरे-धीरे खाने देना चाहिए और विभिन्न व्यंजनों के गुणों का वर्णन करके और खाने के लिए बार-बार कहना चाहिए। भोजन गर्म रहना चाहिए, ब्राह्मणों को मौन रूप से खाना चाहिए, कर्ता के पूछने पर भी भोजन के गुणों के विषय में मौन रहना चाहिए। जब भोजन गर्म हो, ब्राह्मण चुपचाप खायें, वे भोजन के गुणों का उद्घोष न करें तो पितर लोग उसे पाते ( खाते ) हैं । जब ब्राह्मण लोग श्राद्ध भोजन में पगड़ी या उत्तरीय या अँगोछे आदि से अपना सिर ढँककर या दक्षिणाभिमुख होकर या जूता-चप्पल पहने खाते हैं तो दुष्टात्माएँ भोजन खा जाती हैं, पितर नहीं। बहुत पहले गौतम ने कहा है कि ब्राह्मणों के लिए भोजन सर्वोत्तम कोटि का होना चाहिए और उसे भाँति-भाँति के पदार्थों या व्यंजनों से मधुर एवं सुगंधित करना चाहिए ।
भोजन बनाने वालों के विषय में भी नियम हैं। प्रजापतिस्मृति (श्लोक ५७-६२ ) में आया है --- पत्नी, कर्ता के गोत्र की कोई सौभाग्यवती या सुन्दर स्त्री, जो पति वाली हो, पुत्रवती हो, भाई वाली हो और गुरुजनों की आज्ञा का पालन करने वाली हो, कर्ता के गुरु की पत्नी, मामी, फूफी या मौसी, बहिन, पुत्री, वधू, ये सभी सघवाएँ श्राद्ध भोजन बना सकती हैं। अच्छे कुल की नारियाँ, जिनकी संतानें अधिक हों, जो सधवा और जो ५० वर्षों के ऊपर हों या वे नारियाँ जो विधवा हो चुकी हों, चाची, भाभी, माता (स्वाभाविक या विमाता) या पितामही - श्राद्ध भोजन बना सकती हैं। और वे नारियाँ भी जो सगोत्र एवं मृदु स्वभाव की हों। अनुशासन ० ( २९ । १५) में आया है कि मृत से पृथक् गोत्र वाली नारी श्राद्ध-भोजन बनाने के लिए नियुक्तं नहीं हो सकती। अपना भाई, चाचा भतीजा, भानजा, पुत्र, शिष्य, बहिन का पुत्र, बहनोई भी श्राद्ध भोजन तैयार कर सकता है, किन्तु वह नारी नहीं जो श्वेत या गीले वस्त्र धारण किये हो, जिसके केश खुले हों, जो चोली नहीं पहनती हो, जो रुग्ण हो या जिसने सिर धो किया हो । ब्राह्मणों के भोजन करने के पूर्व विश्वेदेव ब्राह्मणों के पात्रों में भोजन परोसना चाहिए और तब पित्र्य ब्राह्मणों के पात्रों में (विष्णुध० ७३|१३-१४), किन्तु जब एक बार ब्राह्मण भोजन करना आरम्भ कर देते हैं तो यह प्राथमिकता दूर हो जाती है । जहाँ भी आवश्यकता पड़े (किसी पात्र में भोजन कम हो जाय तो ) भोजन परोसना चाहिए (जैसा कि मनु ३२३१ ने संकेत किया है)। कर्ता भोजन परोसते समय (यहाँ तक कि पित्र्य ब्राह्मणों को भी परोसते समय ) उपवीत विधि से जनेऊ धारण करता है । यद्यपि ऐसा कहा गया है कि भोजन गर्म होना चाहिए, किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि दही, फल, मूल, सुगंधित एवं
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